भारतीय गरीबी से संबंधित विरोधाभास

Afeias
27 Dec 2018
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Date:27-12-18

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इस वर्ष के प्रारंभ में ब्रूकिंस संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में गरीबी की स्थिति काफी बदल गई है। ऑनलाइन डाटाबेस के अनुसार नाइजीरिया के 8.8 करोड़ अत्यधिक गरीबों की तुलना में भारत में 6.3 करोड़ या जनसंख्या का 4.6 प्रतिशत ही अत्यधिक गरीब है। इसके अनुसार हर एक मिनट में 41 भारतीय गरीबी से छुटकारा पा रहे हैं। 2025 तक मात्र 0.5 प्रतिशत भारतीय ही बहुत ज्यादा गरीब रह जाएंगे।

भारत को यह उपलब्धि तब मिल रही है, जब विश्व के अधिकांश देशों की समृद्धि बढ़ती जा रही है। अधिकांश देशों ने गरीबी से छुटकारा पाने के मंत्र, आर्थिक विकास को अपना लिया है। अब मुक्त व्यापार, कानून का शासन, संपत्ति का अधिकार एवं उद्यमियों के लिए उपयुक्त वातावरण जैसे आर्थिक विकास के तत्व उत्तरी यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका तक ही सीमित नहीं रहे हैं। एशिया को गरीबी मुक्त होने में मुश्किल से एक दशक का समय लगेगा। आने वाले समय में, उप-सहारा के अफ्रीकी देशों; जैसे- नाइजीरिया एवं कांगो में ही बहुत अधिक गरीबी रह जाएगी।

भारत में गरीबी उन्मूलन को लेकर एक अजीब सा विरोधाभास देखने में आता है। स्वतंत्रता के बाद के चार दशकों में लगातार एक ही दल ने राज्य किया। परन्तु विकास की दर बहुत धीमी रही। 1950 से लेकर 1980 तक भारत की आर्थिक विकास दर 3.6 प्रतिशत रही। प्रतिव्यक्ति आय 1.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही। 1980 के बाद सरकारों की अस्थिरता के बीच गरीबी कम तो हुई, परन्तु 1991 के बाद वास्तविक परिवर्तन आया। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के साथ ही प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़कर 4.9 प्रतिशत हो गई। 2004 के बाद से तो यह 6.1 प्रतिशत हो गई। इस अवधि में लगभग 35 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकल सके।

आखिर मजबूत सरकारों की तुलना में कमजोर सरकारों के शासनकाल में तेजी से गरीबी उन्मूलन के क्या कारण रहे ?

स्वतंत्रता के बाद की सरकार ने मांग और पूर्ति पर आधारित बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाने के बजाय, समाजवादी नीति को अपनाया, जहाँ नौकरशाही और उनके राजनैतिक आकाओं का ही बोलबाला रहा। नेहरु और इंदिरा गांधी; दोनों ने ही व्यापार बाधाओं, राष्ट्रीकृत निजी उद्याग, तथा अमीरों पर कर आदि को बढ़ाया। एक तरह से उन्होंने कंपनियों के व्यापार के तरीके को भी निश्चत कर दिया था। इसकी अपेक्षा अगर उन्होंने मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी ढांचों को बढ़ाया होता, कानून-व्यवस्था की मजबूती, निजी उद्यमियों को प्रोत्साहन एवं कौशल विकास पर ध्यान दिया होता, तो भारत को गरीबी-उन्मूलन के लिए इतने समय का इंतजार नहीं करना पड़ता।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इन चार वर्षों में भारत समाजवाद की ओर तो नहीं जा रहा है, परन्तु विमुद्रीकरण जैसी योजनाओं से व्यापार पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। सरकार ने एक नाटकीय अंदाज में कर-इंस्पेक्टरों को लूट का अधिकार देकर एक प्रकार का कर-आतंकवाद फैला दिया है। व्यापार के मामले में उदारवादी नौकरशाहों के बजाय कर-एकत्रित करने वाले नौकरशाह आ बैठे हैं। अधिकांश देशों में वस्तु एवं सेवा कर बड़े व्यवस्थित तरीके से लगाया गया है। भारत के लिए यह एक गड़बड़झाला बना हुआ है। सरकार ने दीर्घकाल से लंबित पड़े भूमि एवं श्रम सुधारों पर कोई ध्यान नहीं दिया। न ही भारी नुकसान में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का निजीकरण किया।

यह सच है कि हमारा देश, बहुत अधिक गरीबी की परिधि को लांघकर निरंतर विकास कर रहा है। परन्तु विश्व के अन्य देशों में बढ़ती समृद्धि की तुलना में अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। सरकार को चाहिए कि वह पुरानी भूलों को नए रूप में दोहराने से बचे। आर्थिक विकास के लिए निरंतर प्रयत्न करे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सदानंद धूमे के लेख पर आधारित। 17 नवम्बर, 2018