बाढ़ की आपदा से निपटने में जैव विविधता की भूमिका
Date:18-09-19 To Download Click Here.
2018 अगस्त में केरल में बाढ़ का कहर बरपा था। आपदा के एक वर्ष बाद भी राज्य उन्हीं स्थितियों से गुजर रहा है। इससे यही पता चलता है कि यह मानव-जनित प्राकृतिक असंतुलन है, जिसने राज्य को जलवायु परिवर्तन की अनियमितताओं के समक्ष जूझने को छोड़ दिया है।
इस प्रकार की आपदाओं का सबसे गहरा प्रभाव समाज के निर्धन वर्ग पर पड़ता है। उसके लिए जीवन का संकट तथा आजीविका की समस्याएं आदि खड़ी हो जाती हैं। सरकार पर भी पुनर्निर्माण का भारी बोझ पड़ता है। इस संदर्भ में धारणीय विकास की दृष्टि से बाढ़ का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
कुछ तथ्य
- एक रिपोर्ट के अनुसार 1970 से 2004 के बीच विश्व भर में ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 70 प्रतिशत बढ़ गया है। इससे हाइड्रोलॉजिकल चक्र पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ा है। इसका सीधा प्रभाव हमें अनियमित वर्षा के रूप में दिखाई दे रहा है।
- विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है। इसके लिए बाँध प्रबंधन के साथ जनता को सतर्क करने में तेजी लाई जानी चाहिए।
- केरल के मामले में ढांचागत रूपांतरण और भूमि के बेतरतीब इस्तेमाल ने पर्यावरण के लिए परेशानियां खड़ी कर दी हैं।
- सकल घरेलू उत्पाद में राज्य-कृषि का योगदान कम होता जा रहा है, और सेवा-क्षेत्र एवं उद्योगों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
- जनसंख्या का उच्च घनत्व, जो 2011 की जनगणना में 860 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. था, देश के अन्य प्रांतों के औसत 382 से बहुत अधिक है।
- केरल में खाड़ी देशों से अपार धनराशि आती है। नतीजतन लोग आलीशान बंगलों और बड़े मकानों का निर्माण करने लगे हैं।
- सरकार ने सेवा और उद्योग क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए ढांचागत निर्माण-कार्य तेज कर दिया है।
निर्माण कार्यों में स्थान, आकार, निर्माण सामग्री, उद्देश्य और प्रकृति को होने वाली हानि आदि को ध्यान में रखा जाना चाहिए। केरल के खूबसूरत और रम्य प्राकृतिक वातावरण को हम खाड़ी देशों की नकल पर निर्माण करके खत्म नहीं कर सकते। भूमि हस्तांतरण के रिकार्ड बताते हैं कि लोगों ने किसानों से कृषि के लिए भूमि नहीं खरीदी है, बल्कि निर्माण के लिए ली है। वैटलैण्ड में लगातार आने वाली कमी भी राज्य में बाढ़ जैसी आपदा के लिए उत्तरदायी है।
प्राकृतिक पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान का लोग अंदाजा नहीं लगा पाते हैं। बाढ़ से भूमि की ऊपरी पर्त और जैव विविधता नष्ट हो जाती है। ठससे नदी के जल-प्रवाह में कमी आ जाती है। केंचुओं की कमी और वायरस व बैक्टिरिया से फसलों में बीमारियां फैलने लगती हैं।
फिलहाल, प्राकृतिक सम्पत्ति की सुरक्षा के बारे में कोई स्पष्ट मार्ग नहीं है। इस दिशा में जल्द ही कदम उठाए जाने चाहिए।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित प्रकाश नेलियत के लेख पर आधारित। 14 अगस्त, 2019