दलितों की सुध कब लेंगे हम ?
Date:29-06-20 To Download Click Here.
हाल ही में अमेरिका में एक अफ्रीकी-अमेरिकन की वहां की पुलिस ने जिस प्रकार से हत्या की है , उसकी भारत समेत पूरे विश्व में निंदा की गई है। भारत में इस कृत्य का उतना प्रबल विरोध नहीं किया गया , जितना कि किया जाना था। इसके दो कारण हैं। पहला , पुलिस प्रशासन सहित हमारी अधिकांश जनता किसी अपराधी को जुर्म कबूलवाने के लिए थर्ड डिग्री टॉर्चर के प्रयोग को सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा मानती है। भारत जैसे देश में ; जहां न्याय व्यवस्था धन और संबंधों के चलते निष्पक्ष न्याय नहीं कर पाती है , वहां एनकांउटर करने वाली पुलिस को हीरो की तरह माना जाता है। इसकी भर्त्सना शायद ही कभी की गई हो।
दूसरे , हमारे देश के समाज और राजनीति में , जाति , धर्म और लिंग से जुड़ी हिंसा इतनी घुसी हुई है कि पुलिस द्वारा की गई हिंसा को इसी का विस्तार मान लिया जाता है। लोग विभिन्न धर्म-वर्ग के बीच हिंसक झड़पें होना यहाँ आम बात है। इन सबका नेतृत्व करने वाले राजनैतिक नेता का पद पा जाते हैं। यहाँ के प्रत्येक राजनैतिक दल ने ऐसे अनेक गुंडे पाल रखे हैं , जो समय-समय पर इनका विरोध करने वालों को धमकाते और मारते-पीटते रहते हैं। पुलिस को इन सबसे कोई मतलब नहीं रहता।
अगर समाज में राजनीतिक हस्तक्षेप न भी हो , तो भी यहाँ जाति आधारित हिंसा की जन्मजात प्रवृत्ति है – सजातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों को धमकाया और बेदखल किया जाता है , भागने वाले प्रेमी युगलों को खाप पंचायत मार देती है , कोई समूह विशेष फिल्मों और पुस्तकों पर रोक लगा सकता है , और तथाकथित बच्चा पकड़ने वालों या डायनों की भीड़ द्वारा हत्या की जाने के लिए अफवाहें ही पर्याप्त होती हैं।
अमेरिका की घटना के बाद वहां ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ का नारा गूंज उठा है। इसी तर्ज पर भारत में ‘मुस्लिम लाइव्स मैटर’ का अभियान चलाने की सोची जा रही है। सांप्रदायिक हिंसा में मरने वालों में अधिकांश मुसलमान होते हैं। अनेक घटनाओं में हिंदुओं ने गो-मांस खाने या गो-वध के संदेह और अपराध में मुसलमानों की हत्या की है। जम्मू के एक हिंदू क्षेत्र में मुसलमानों को प्रवेश से रोकने और डराने के लिए मुस्लिम खानाबदोश समूह की एक आठ वर्षीय बालिका के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।
इन सबके बावजूद , अमेरिका के अश्वेतों की अपेक्षा भारतीय मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी है। आखिर मुसलमानों ने लगभग हजार वर्षों तक भारत पर शासन किया है। प्रजातंत्र के दौर के आने तक उन्होंने यह नहीं सोचा था कि वे अल्पसंख्यक हैं। बहुत से मुसलमान शासक ,जमींदार और धनी व्यवसायी हैं। जबकि अमेरिका के अश्वेत लोग तो शुरू से गुलामी ही करते रहे हैं।
अगर भारतीय वास्तव में ऐतिहासिक और वर्तमान आक्रोश का विरोध करना चाहते हैं , तो उन्हें ‘दलित लाइव्स मैटर’ का नारा देना चाहिए। देश के राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो का रिकार्ड बताता है कि कैसे 2012 की तुलना में 2016 में दलितों के प्रति अपराध की संख्या बढ़ गई है। इसके अलावा भी ऐसे बहुत से मामलें हैं , जो रजिस्टर ही नहीं हो पाते हैं। केवल ऐसे मामलों को ही उछाला जाता है , जो किसी राजनैतिक दल को नीचे गिराने के काम आ सकें।
दलितों के प्रति हिंसा में पुलिस भी पीछे नहीं है। लेकिन इस प्रकार की हिंसा को हिन्दुओं के मत्थे मढ़ दिया जाता है। भले ही संविधान ने हमें समानता का अधिकार दिया हो , परंतु हिंदू समाज पर “मनुस्मृति” के नियम ही हावी हैं। “मनुस्मृति” में जाति-प्रथा या अपने अनुक्रम से अलग जाने वाले शुद्रों को कठोर डंड देने का प्रावधान है। ये दंड हर रूप में अमानवीय ही कहे जाएंगे। यदपि जाति-प्रथा अब खत्म होती जा रही है , परंतु दलितों के प्रति किए जाने वाले अत्याचार चलते चले जा रहे हैं।
भले ही भाजपा जाति प्रथा को हटाने की तुरही बजाती रहे , परंतु राजस्थान में भाजपा शासन के दौरान वहाँ के उच्च न्यायालय के समक्ष बनी मनु की मूर्ति सच्चाई बयां करती है। दलितों के विरोध के बावजूद इसे वहाँ से हटाया नहीं गया।
एक बार को मनु के लिए अश्वेतों को दलितों के समकक्ष या उनसे नीचे माना जा सकता होगा , लेकिन यह निश्चित है कि अधिकांश भारतीयों को ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ से कोई लेना-देना नहीं होगा , क्योंकि उनके लिए ‘दलित लाइव्स मैटर’ का कोई अर्थ नहीं है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित। 14 जून , 2020