प्रशस्त मार्ग कोविड-19

Afeias
26 Jun 2020
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Date:26-06-20

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कोविड-19 के संक्रमण से लेकर अब तक अर्थव्यवस्था में गिरावट , रोजगार के अवसरों  का समाप्त हो जाना और आपूर्ति श्रृंखला का ध्वस्त हो जाना , दर्शाता है कि इस दौरान बनाई गई सरकारी नीतियां विफल हो चुकी हैं। इसका प्रमाण हमें लोगों की भूख और बेरोजगारी में मिल रहा है। आखिर सरकार किन-किन स्तरों पर विफल हुई और इसके विकल्प के रूप में क्या किया जाना चाहिए था ?

  • शुरूआत तो सरकार के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के निर्णय से की जानी चाहिए। सरकार ने इस लॉकडाउन की तैयारी के लिए लोगों को कोई समय नहीं दिया। अगर यही कदम स्वास्थ विशेषज्ञों , समाजशास्त्रियों , महामारी विशेषज्ञ और अर्थशास्त्रियों की सलाह के बाद उठाया गया होता , तो इस समय भूख से पीड़ित लोगों की संख्या इतनी अधिक नहीं होती।
  • भारत जैसे देश में ; जहां अधिकांश जनसंख्या स्वच्छ पानी और सफाई के बिना पास-पास रहती है , वहां उन्हें हाइजीन के नाम पर सम्पन्न लोगों की तरह एक दूरी बनाए रखने के लिए परेशान करने का क्या औचित्य रहा ? इसकी बजाय सरकार को दक्षिण कोरिया के उदाहरण से सीखना चाहिए था। वहां टेस्टिंग , सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ पर अत्यधिक ध्यान दिया गया। सीमित कंटेनमेंट किया गया।
  • माना कि अत्यधिक संक्रमित क्षेत्रों के लिए लॉकडाउन जरूरी था , लेकिन इससे पहले लोगों को , खासतौर पर गरीब जनता को यह समझाया जाना था कि ऐसा क्यों किया जा रहा है। अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों के माध्यम से लोगों के मन में लगातार उठने वाले प्रश्नों के उत्तर मीडिया के माध्यम से दिए जा सकते थे।
  • लॉकडाउन की एक निश्चित अवधि के लिए कमजोर वर्ग को सात हजार रु. का नकद ट्रांसफर और सार्वजनिक वितरण प्रणाली का रूप विस्तृत किया जाना था। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अगर तीन और छः माह के लिए सभी नागरिकों को ऐसी सहायता दी जाती , तो भी यह जीडीपी का 3% ही होती। भारत के अन्न भंडार में लगभग 7.7 करोड़ टन की ही कमी आती , जिसे संभालना आसान था।
  • फिलहाल , सरकार को चाहिए कि वह सूक्ष्म , लघु व मझोले उद्योगों के ऋण की किश्तों का भार अपने ऊपर लेकर उन्हें डूबने से बचाए। इसके लिए सरकार को अमेरिका की तर्ज पर विस्तृत रोजगार गारंटी योजना चलानी चाहिए , जिसका विस्तार शहरों तक किया जाना चाहिए।
  • लॉकडाउन के कम-से-कम एक सप्ताह पहले प्रवासी मजदूरों और इधर-उधर फंसे लोगों को अपने गंतव्य तक पहुँचने का समय दिया जाना था।
  • लोगों को हाथ धोने के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध हो सके , इसके लिए सरकार झुग्गी और गरीब बस्तियों में टैंकर से पानी पहुंचाए।
  • मानसिक स्वास्थ और घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों के लिए हेल्पलाइन चलाई जाए।
  • जेलों को सुरक्षित बनाने के लिए अंडर-ट्रायल कैदियों को पेरोल पर रिहा करने का विकल्प रखा जाना चाहिए। कम-से-कम 65 वर्ष से ऊपर के कैदियों के लिए ऐसा सोचा जा सकता है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ को रातोरात ठीक नहीं किया जा सकता। स्पेन की तरह इस समय निजी अस्पतालों की सुविधाओं को निःशुल्क करके सार्वजनिक स्वास्थ के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।
  • सरकार को संक्रमण की शुरूआत से ही सार्वजनिक और निजी सहभागिता से पीपीई किट , टेस्टिंग किट और वेंटीलेटर तैयार करवाना चाहिए था।
  • ‘आशा फाउंडेशन’ और ऐसे अनेक संस्थानों के अलावा सफाई कर्मचारियों का वेतन बहुत कम है। उनके लिए रोजगार की सुरक्षा भी नहीं है।
  • वर्ग और सामाजिक भेद को भुलाकर इस समय सरकार को बस यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी नागरिकों को बेहतर स्वास्थ सेवाएं और सुविधाएं मिल सकें। लंदन ने बेघर लोगों को सरकारी खर्च पर खाली पड़े होटलों में भेज दिया है। भारत भी ऐसा कर सकता है।

कोविड से प्रभावित अधिकांश देशों ने जहाँ अपने जीडीपी का 10% से 20% लोगों के कल्याण में लगाया है , वहीं भारत ने 1% से भी कम व्यय किया है। सरकार चाहे तो देश के शीर्ष 1% धनी वर्ग पर 2% का उपकर लगाकर संतुलन बना सकती है। समाधान हमारे अपने हाथों में है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित हर्षमंदर के लेख पर आधारित। 13 जून, 2020

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