
हिमालयी विकास और प्रकृति तथा लोगों के अधिकारों के लिए न्यायालय द्वारा प्रशस्त मार्ग
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भारत का हिमालयी क्षेत्र भारत की जलापूर्ति का मुख्य स्रोत होने के साथ-साथ अमूल्य पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़े उपहार और सेवाएं भी देता है। इस समझ के बावजूद, विशेष विकास आवश्यकताओं और हिमालयी क्षेत्र में चलाए जा रहे विकास मॉडल के बीच भारी मतभेद रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय के कुछ हालिया निर्णयों से यह राहत मिलती है कि हम एक अधिक मजबूत अधिकार आधारित व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ सतत विकास एक मौलिक अधिकार होगा।
- तेलंगाना राज्य और अन्य बनाम मोहम्मद अब्दुल कासिम के केस में न्यायालय ने कहा था कि समय की मांग है कि पर्यावरण के प्रति एक पारिस्थितिकी केंदित दृष्टिकोण अपनाया जाए।
- अशोक कुमार राघव बनाम भारत संघ और अन्य नामक जनहित याचिका में, सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और याचिकाकर्ता से ऐसा रास्ता सुझाने के लिए कहा, ताकि न्यायालय हिमालयी राज्यों और कस्बों की वहन क्षमता पर निर्देश प्राप्त कर सके।
- ग्रेट इंडियन बस्टर्ड मामले में न्यायालय ने देश के लोगों के जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार को मान्यता दी है।
- न्यायालय ने कई अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दायित्वों के उदाहरण के साथ, विशेष रूप से अनुच्छेद 14 और 21 में निहित मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों के बीच संबंधों को स्पष्ट करने के लिए विस्तार से समझाया है। इसमें विकास का अधिकार और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में सक्षम होने का नया अधिकार शामिल है।
सर्वोच्च न्यायालय के इन निणयों और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के नए मौलिक अधिकारों को देखते हुए, यह जरूरी है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में वृद्धि और विकास की आकांक्षाओं को विज्ञान और लोगों तथा प्रकृति के अधिकारों के साथ जोड़ा जाये।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित अर्चना वैद्य के लेख पर आधारित। 25 जून 2024