
जी एम फसल विरोधी अभियान
Date:25-01-19 To Download Click Here.
जेनेटिक मॉडिफिकेशन (जी एम) तकनीक का प्रयोग फसलों की उन्नत किस्मों की पैदावार के लिए किया जाता है। भारत में अभी तक इस तकनीक से बीटी कॉटन की फसल ही उगाई जा सकी है। इस क्षेत्र में बैंगन, सरसों और आलू की फसलों को भारत में अनुमति नहीं दी गई है।
जी एम फसलों की शुरुआत अमेरिका में 1990 के मध्य में की गई थी। इस तकनीक की मदद से वहाँ मक्का, सोयाबीन आदि कई प्रकार की फसलें पैदा की जा रही हैं।
कुछ समय से भारत में कृषि विशेषज्ञों का एक समूह जीएम तकनीक के दुष्प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए उसका विरोध कर रहा है। उनका मानना ओर कहना है कि जेनेटिक मॉडिफिकेशन जैसी तकनीकों की आवश्यकता केवल सूखे, अकाल या बाढ़ के समय ही पड़ती है। जैविक परिवर्तनों के दौरान इसका कोई लाभ नहीं है, क्योंकि जैविक परिवर्तन अर्थात् कीटों के प्रकारों और उनसे जुड़ी बीमारियों में लगातार बदलाव आता रहता है। अतः उनका मानना है कि बहुत ही कम (1 प्रतिशत से भी कम) स्थितियों में इस प्रकार की तकनीक की आवश्यकता पड़ सकती है।
वास्तविकता क्या है ?
- जी एम तकनीक के पक्षधर वैज्ञानिकों का माना है कि अब अजैव स्थितियां जैसे अकाल; सूखा आदि की समस्या आम होने लगी है। यह 1 प्रतिशत से कम में नहीं आती।
- यू.एस. नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस ने 2016 में एक रिपोर्ट जारी करते हुए बताया था कि मक्के और कपास की गैर जीई किस्म को रासायनिक कीटनाशकों से भी उतना बचाया नहीं जा सकता। 1996 से 2015 तक किए गए इस मध्ययन में बी टी फसलों में वास्तविक पैदावार अधिक प्राप्त की गई।
- अनेक डाटा बताते हैं कि जीएम तकनीक को अपनाकर कीटनाशकों के प्रयोग को 37 प्रतिशत कम किया जा सका, पैदावार को 22 प्रतिशत बढ़ाया जा सका एवं किसानों के लाभ में 68 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई।
भारत के संदर्भ में जी एम फसल
- भारत में बीटी कॉटन असफल नहीं है। इसके आने से पहले जिस भूमि पर 300 कि.ग्रा. की पैदावार होती थी, वह बढ़कर 500 कि.ग्रा. हो गई है। जो भारत कपास आयात करता था, अब वह इसका सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है।
- हमारा किसान आज भी बीटी कॉटन उगा रहा है। अब, भारत में बीटी जीन्स को इस प्रकार से तैयार करना है कि यह दूसरे दर्जे के कीटों को रोक सके। बी टी कॉटन की इस प्रकार की किस्म तैयार करने की आवश्यकता है, जो 800 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की पैदावार दे सके। विदेशों में इसे संभव कर लिया गया है।
- जी एम सरसों की तकनीक को सरसों की संकर (हाइब्रिड) प्रजातियां उत्पन्न करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। इस तकनीक में हर्बीसाइड ग्लाइसोफेट का उपयोग किया जाता है, जिसे कैंसर जैसी बीमारी का कारण माना जाता रहा है। परन्तु अभी तक प्रमुख विज्ञान अकादमियों ने इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया है। अतः प्रयोग किए जाने की आवश्यकता है।
- 2010 में भारत ने बी टी बैंगन पर रोक लगा दी थी। इस क्षेत्र में होने वाले समस्त अनुसंधान और डाटा का लाभ उठाकर बांग्लादेश ने समस्त नकारात्मक दृष्टिकोणों को धता बताकर बी टी बैंगन की बम्पर पैदावार की है।
जी एम फसलों के संदर्भ में प्रयोग करने को लेकर भारत बहुत आगे रहा है। इस प्रक्रिया में अनेक वैज्ञानिकों ने भाग लिया है। इस तकनीक को खारिज किया जाना, एक तरह से जी एम पर बनी समीक्षा समिति और जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल समिति की कोशिशों पर पानी फेरने के समान होगा। इस तकनीक का केस या प्रयोग आधारित मूल्यांकन किया जाना चाहिए। इस संबंध में दी जा रही नकारात्मक अवधारणाओं से भटकाव उत्पन्न होगा, और हमारे किसानों का नुकसान होगा।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित जी. पद्मनाभन के लेख पर आधारित। 11 दिसम्बर, 2018