जनसांख्यिकीय लाभांश का श्रेय उत्तर भारतीय राज्यों को दिया जाए।

Afeias
09 May 2018
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Date:09-05-18

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हम सब यह जानते हैं कि भारत को अभी कई दशकों तक जनसांख्यिकीय लाभ मिलने वाला है। आने वाले तीन या चार दशकों में भारत में काम करने योग्य जनसंख्या में लगभग 20 करोड़ की वृद्धि होने वाली है। वहीं चीन में काम करने वाले लोगों का प्रतिशत क्रमशः कम की ओर जा रहा है। इस मायने में हमारी जनसंख्या अभिशाप की जगह वरदान बन गई है।

इस परिवर्तन को जनता और राजनीतिक सोच में स्थान दिए जाने की आवश्यकता है। जनसंख्या की वृद्धि मुख्यतः उत्तर भारतीय राज्यों की देन है। 2001 से 2011 तक बिहार में जनसंख्या वृद्धि लगभग 25.1 प्रतिशत रही, जबकि केरल में यह 4.9 प्रतिशत थी।

अभी तक दक्षिण भारतीय राज्यों को परिवार नियोजन के सफल प्रयासों का श्रेय दिया जाता रहा है। परन्तु इस सोच में परिवर्तन के साथ ही जनसंख्या में वृद्धि करने वाले राज्यों को प्रोत्साहन राशि दिया जाना अपेक्षित हो जाता है। बहुत से देश अपनी जनता को बड़े परिवार बनाने पर इस प्रकार का प्रोत्साहन देते हैं। परन्तु भारत में तो उल्टे बड़े परिवार बनाने वालों को अनेक सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है।

15वें वित्त आयोग की 2011 की जनगणना के आधार पर राजस्व वितरण की नीति से दक्षिण भारतीय राज्य काफी नाराज हैं, और वे भारत से अलग होने जैसा मंतव्य भी दिखा चुके हैं। अगर न्याय की बात करें, तो कायदे से कर राजस्व का हिस्सा प्रत्येक नागरिक को मिलना चाहिए। इस नाते उत्तर भारतीय राज्यों को उनका न्यायसंगत हिस्सा दिया जा रहा है।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आज तक जिसे जनसंख्या विस्फाट माना गया, उसे अचानक लाभ की श्रेणी में कैसे गिना जा सकता है? इसका सीधा संबंध किसी देश के स्वास्थ्य और पोषण से है। जब किसी गरीब देश में इन दोनों तत्वों का स्तर अच्छा होता है, तो मृत्यु दर कम हो जाती है। ऐसे में जन्म दर पर धीरे-धीरे ही नियंत्रण पाया जा सकता है। अतः एक समय पर तो जनसंख्या विस्फोट की स्थिति नजर आती है। दूसरे सोपान में, व्यक्तिगत आय और शिक्षा से परिवार नियोजन प्रारंभ होता है। जन्म दर घट जाती है। आश्रितों की तुलना में काम करने वालों की संख्या बढ़ जाती है। कुछ अध्ययन यह बताते हैं कि एशियाई देशों की चामत्कारिक अर्थव्यवस्थाओं का कारण यही है।

इसके पश्चात् वृद्ध जनसंख्या की उम्र लंबी होती जाती है। सरकार को उनकी पेंशन एवं स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक खर्च करना पड़ता है। जापान और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं के तुलनात्मक रूप से क्षय का यही कारण है।

दक्षिण भारतीय राज्यों ने एक समय पर जन्म दर को घटाकर सकल घरेलू उत्पाद में तेजी लाने का प्रोत्साहन प्राप्त कर लिया। परन्तु अब केरल और तमिलनाडु में वृद्धों की संख्या अधिक हो गई है। जन्म दर कम होने के कारण उनका स्थान लेने वाली युवा पीढ़ी अपेक्षाकृत बहुत कम है।सौभाग्यवश उत्तर भारतीय राज्यों में वृद्धों के स्थान पर एक कार्यबल देने की क्षमता अभी कई दशकों तक बनी रहेगी। बिहार में तो यह 2100 तक कायम रह सकती है।

वित्त आयोग को चाहिए कि जनसांख्यिकीय लाभांश के साथ वह राज्य के राजकोष में योगदान, पर्यावरण-संरक्षण, त्वरित न्याय तथा शिक्षा एवं स्वास्थ प्रदान करने के प्रयासों पर भी गौर करे। इससे दक्षिण और उत्तर भारत के उच्च-प्रदर्शन वाले राज्यों को लाभ मिलेगा। उनको किसी प्रकार की शिकायत भी नहीं होगी। फिलहाल उन्हें इस तथ्य से तादात्म्य बैठाना ही होगा कि एक समय पर उच्च जन्म दर को नकारात्मक माना जाने वाला चिन्तन परिवर्तित हो चुका है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित।