परिवर्तन-काल

Afeias
08 May 2018
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Date:08-05-18

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मृत्यु खेदजनक होती है, और हिंसा निंदनीय। हाल ही में उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति /जनजाति के विरूद्ध अत्याचार अधिनियम में लाई जाने वाली तरलता के विरूद्ध दलितों के प्रदर्शन ने इस दमित वर्ग का मानवता के अधिकार के प्रति अपना स्पष्ट दावा सिद्ध कर दिया है। यह भारत के लिए अस्तित्व के पहचान के संकट की ओर बढ़ते कदम में मील का पत्थर साबित होगा।

देश के कई भागों में दलित, पहले भी मुखर होते रहे हैं, परन्तु उनकी आवाज एकजुट होकर नहीं उठी, और इसलिए उसका प्रभाव लंबे समय तक नहीं रह सका। इस प्रकार उनके समानता के अधिकार की मांग को राजनेताओं ने संरक्षण की राजनीति के तहत एक प्रकार का चारा बना लिया। इस संरक्षण से उनका सशक्तिकरण कदापि नहीं हुआ। हाल ही में हुए दलित आदोलन की उग्रता ने यह सिद्ध कर दिया है कि अब देश एक नए अध्याय में प्रवेश कर रहा है। यह हानिकारक भी हो सकता है। यह अपनी गांठों को पूर्ववर्ती नियंत्रण और संरक्षण से हटाने का प्रयत्न है। इससे जो भी बदलाव होगा, वह भारत के लिए बेहतर होगा।

इस आंदोलन का संबंध जिस कानून में ढील देने से है, उसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग बड़े शहरों के सरकारी कार्यालयों में होता है। इसका समाधान कानून की कार्यप्रणाली में बदलाव करना नहीं है, वरन् कानून का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करना है। जैसे प्रशासनिक अधिकारियों के संदर्भ में किसी वरिष्ठ अधिकारी की स्वीकृति के बाद ही मुकदमा चलाया जा सकता है। परन्तु यदि वरिष्ठ अधिकारी भी उसी जाति पूर्वाग्रह से पीड़ित है, जिसके लिए उसके अधीनस्थ पर आरोप लगाया गया है, तो जाहिर है कि वरिष्ठ अधिकारी मुकदमा चलाने की अनुमति क्यों देगा? ऐसे में कानून का क्या उपयोग होगा?

कानून की कार्यप्रणाली को प्रभावशाली बनाने के लिए और दलितों को दुर्व्यवहार से बचाने क लिए इसे सुधारने की आवश्यकता है।

इस पूरे आंदोलन का कारण इस कानून की व्याख्या पर आधारित नहीं था। बल्कि इसका कारण उस सामाजिक व्यवस्था का विरोध करना था, जो उन्हें मानवीय गरिमा से जीने से रोकती है। दलितों को मूंछे रखने, घोड़ा रखने या उस पर बैठने पर मारा जाता है।

ऐसे किसी कानून की कार्यप्रणाली को बदल देने से, जो पहले ही बहुत ठोस न हो, अत्याचार से मिलने वाला न्यूनतम संरक्षण भी समाप्त हो जाता है। हांलाकि अत्याचारों से सुरक्षा के लिए तब तक कोई कानून प्रभावशाली नहीं हो सकता, जब तक कि देश के मातहत समुदायों का सशक्तीकरण न किया जाए, जब तक कि हमारे समाज को सही मायनों में प्रजातांत्रिक न बना दिया जाए।

आदिवासी समुदायों और भूमिहीन दलितों को भूमि देकर इसकी शुरुआत की जानी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के मालिकाना हक का बहुत महत्व है। दूसरे, शिक्षा एवं शहरीकरण ऐसा हो, जो लोगों को अपने जातिगत व्यवसायों से भिन्न व्यवसाय अपनाने की छूट दे सके। ये दमित जातियों को समर्थ करने के तरीके हैं। परन्तु उनकी स्थिति को सुधारने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। जातिगत दमन तो तभी बंद हो सकता है, जब जाति-व्यवस्था को ही खत्म कर दिया जाए।

जाति की अवधारणा हिन्दू परम्परा में धंसी हुई है। दक्षिण एशियाई संस्कृति में हिन्दू प्रभुत्व उन लोगों की चेतना में जाति को प्रेरित करता है, जो ऐसे प्रचलित विश्वास का अनुकरण करते हैं, जिनमें सामाजिक पदानुक्रम के लिए कोई आध्यात्मिक स्वीकृति नहीं, वरन् केवल जड़ता है। अतः ऐसे समाज की राजनीति में जाति का इस्तेमाल चुनाव में केवल वोट लेने के इरादे से किया जाता है।

प्रजातंत्र एक ऐसा आधार है, जहाँ कानून के समक्ष सबको समान समझने की प्रतिबद्धता होती है। ऐसी व्यवस्था जाति-विरोधी होती है। जीवन के प्रत्येक पहलू का निरन्तर लोकतांत्रिकरण किया जाना ही, जाति-व्यवस्था को चुनौती दे सकता है। इसी से धार्मिक सुधार आएगा, जाति और धर्म से परे अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार युवाओं को मिलेगा और घर, कार्यालय, पूजा-स्थलों, साहित्य, कला, सिनेमा और गीतों में प्रतिदिन मिलने वाली प्रगति विरोधी विचारों की चुनौतियों का शमन किया जा सकेगा।

पूर्व में किए गए सामाजिक सुधार के प्रयासों ने ऐसी हस्तियों को जन्म दिया, जो पूज्य तो बन गए, परन्तु समाज में आक्रामक बदलाव नहीं ला सके। पूर्व में अनुपस्थित कुछ ऐसे तत्व वर्तमान में उपस्थित हैं, जो स्थिति को भिन्न बनाते हैं। (1) अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक विविधता ने रोजगार के नए अवसर और दलित उद्यमियों को जन्म दिया है, जिनमें से कुछ तो करोड़पति हैं। (2) प्रतिस्पर्धी राजनीति, जो लोकतांत्रिक आदर्शों के लक्ष्य को सरल बनाती है, और (3) सोशल मीडिया का प्रसार, जो सांस्कृतिक पहलू को कठिन बनाता है। छोटे राजनीतिक दल इन स्थितियों का लाभ उठायेंगे, कुछ अन्य लोग गौरवशाली हिन्दू इतिहास की याद दिलाएंगे। इन सबके बीच दलित आगे बढ़ते ही जाएंगे।

द हिन्दू’ मे प्रकाशित लेख पर आधारित।

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