दुःस्वप्न में रूपांतरित होता जनसांख्यिकीय लाभांश

Afeias
17 Jan 2020
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Date:17-01-20

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कुछ समय से भारत के राजनैतिक और नौकरशाही समाज में आत्मतुष्टि की एक भावना सी व्याप्त हो गई है कि देश में चाहे जिस प्रकार की परेशानी हो, उससे निपट लिया जाएगा। भारत को अब साधनहीन, निर्धन देश मानने से भी इस वर्ग को परहेज है।

वास्तव में तो भारत ऐसा अत्यंत निर्धन देश है,जहाँ कुपोषण व्याप्त है; जहाँ बच्चों की एक बड़ी संख्या प्रतिवर्ष स्कूल छोड देती है; और जहाँ प्रतिवर्ष करोड़ों अप्रशिक्षित युवा कार्यबल का हिस्सा बन जाते हैं, और कोई ढंग का रोजगार न मिलने पर मजदूरी जैसे कठोर श्रम में झोंक दिए जाते हैं। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश एक दुस्वप्न में रूपांतरित हो रहा है।

भारत की इस स्थिति को संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में दर्शाया गया है। 189 देशों में किए गए इस सर्वेक्षण में भारत का 129वां स्थान है, जबकि चीन का 85वां और श्रीलंका का 71वां स्थान है।

प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का कम होना

अन्य देशों से तुलना करने पर भारत की समृद्धि का मोहक किन्तु संदिग्ध परिदृश्य सामने आ जाता है। जीडीपी (पीपीपी) में भारत का स्थान चीन और अमेरिका के बाद तीसरे पर आता है। असलियत तब सामने आती है, जब हम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति जीडीपी (पीपीपी) को मापते हैं।

भारत का जीडीपी (पीपीपी) चीन का 43 प्रतिशत और इंडोनेशिया का केवल 59 प्रतिशत है। यह वियतनाम से थोड़ा ही ऊपर है, और वह भी जल्द ही भारत से आगे निकल जाएगा। मानव विकास सूचकांक में इसका स्थान 118वां है।

प्रति व्यक्ति जीडीपी (पीपीपी) में भारत फ्रांस और यू.के. से बहुत पीछे है। आसियान देशों का जीडीपी (पीपीपी) भारत के जीडीपी की तुलना में 80 प्रतिशत है, जबकि इन देशों की कुल जनसंख्या भारत से आधी है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि जनसंख्या भारत की ताकत है। परन्तु इसका कोई अर्थ नहीं; अगर एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाएं बढ़ती रहीं, और हम थमे रहे।

हाल ही के अपने एक लेख में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने लिखा है कि, ‘‘बड़ी-बड़ी मूर्तिया बनाने की बजाय, भारत को नए तरह के स्कूल और विश्वविद्यालय बनाने चाहिए, जो उसके बच्चों का दिमाग खोल सकें, उन्हें एक दूसरे के प्रति सहिष्णु बनना सिखाएं, और भविष्य के प्रतिस्पर्धी संसार में अपने पांव जमाना सिखाएं।’’

आज जब एशिया जुड़ रहा है, भारत एक अलग कोने में जा खड़ा हुआ है। एक व्यापक दृष्टिकोण रखे बगैर हम 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था नहीं बन सकते। हमें अन्य पूर्वी-एशियाई देशों की तरह अपने युवाओं को शिक्षा और कुशलता देनी होगी। ऐसे बुनियादी ढांचे का विकास करना होगा, जो सबको सम्पन्न कर सके।

रिजनल कांप्रिहेन्सिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप एक जीवंत कार्यक्रम है, जो दक्षिण-एशिया में समृद्धि ला सकता है। परन्तु भारत ने अपने को इससे अलग कर रखा है। भारत को इस प्रकार की नीतियों से सरोकार रखना होगा, जो उसका चहुँमुखी विकास कर सकें।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित उदय बालकृष्णन के लेख पर आधारित। 31 दिसम्बर, 2019

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