कार्पोरेट-हिन्दुत्व साझेदारी का गणित
Date:04-11-19 To Download Click Here.
हिन्दुत्व-राष्ट्रवाद, राष्ट्र-विरोधी औपनिवेशिक राष्ट्रवाद की तरह अर्थशास्त्र की समझ नहीं रखता है। इसका सीधा कारण है। राष्ट्र-विरोधी औपनिवेशिक राष्ट्रवाद, औपनिवेशक शोषण की समझ से उत्पन्न हुआ था। यही कारण है कि यह सभी पूर्व एवं औपनिवेशिक शासकों के बीच अलग रेखा खींच देता है। भारत के पूर्व शासकों ने किसानों के आर्थिक अधिशेष को विनियोजित किया है, और इसे घरेलू स्तर पर ही खर्च किया था, जिससे रोजगार पैदा हुआ। जबकि उपनिवेशकालीन शासकों ने अधिशेष को किसानों से लेकर विदेश भेजा, जिसने घरेलू रोजगार को नष्ट कर दिया। हिन्दुत्व में इस मूल भेद को खत्म कर दिया गया, क्योंकि यह अर्थशास्त्र की समझ नहीं रखता है। उसने मुगलों और अंग्रेजों को समान प्रकार का शोषक मान लिया।
दौर का परिवर्तन
इस दौर में; जब नव उदारवादी पूंजीवाद ने अपनी महत्ता खो दी है, कार्पोरेट जगत् एक ऐसी ही विचारधारा का खिलौना चाहता है। वह सकल घरेलू उत्पाद और इससे संभावित लाभकारी प्रभाव का वायदा चाहता है। विकास की शिथिलता के दौर में यह पर्याप्त नहीं होता। सरकारी नीति के पक्षधर तैयार करना, और साथ ही किसी विद्रोह को रोकने की सुविधा, हिन्दुत्व प्रदान करता है। कार्पोरेट-हिन्दुत्व साझेदारी का यही आधार है, जिस पर देश चल रहा है।
अगर हिन्दुत्व आर्थिक संकट से उबरने का प्रयास भी करता, तो भी इसकी उपयोगिता सीमित ही होती। यह आर्थिक संकट नवउदारवाद से विरोधाभास रखने वाले विमुद्रीकरण और जी एस टी जैसे कदमों के कारण उत्पन्न हुआ है। अतः कार्पोरेट और हिन्दुत्व की यह साझेदारी खत्म हो गई होती। आर्थिक मामलों में हिन्दुत्व की महानता से यह चलती चली जा रही है।
इस चलन की एक कड़ी उपनिवेश-विरोधी उस संघर्ष में भी है, जहाँ राजनीतिक हित के लिए वादे किए गए। उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद, और उग्र राष्ट्रवाद में बहुत कम समानता है। यह काफी हद तक जीवन की भौतिक स्थितियों को दरकिनार कर देता है। यह यूरोपीय उग्र राष्ट्रवाद की ओर जाता दिखता है, जो युद्ध के वर्षों में अपनी परिणति पर पहुँचा था।
राजनीतिक प्रभाव
भारतीय राजनीति में इस प्रकार की पारी अभूतपूर्व है। यही कारण है कि विपक्ष इतना उत्तेजित हो गया है। वामपंथी दंग रह गए हैं। यह हलचल की बस शुरुआत है। कांग्रेस यह समझ पाने में असमर्थ है और शायद वह हिन्दुत्ववादी उग्र राष्ट्रवाद का अनुसरण करने के प्रति असहज है।
हाल ही के लोकसभा चुनाव में इस विचारधारा के परिवर्तन का महत्व स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ था। भाजपा तो पहले ही हार गई थी। एक शक्तिशाली किसान आंदोलन ने इस शासन की निरंतरता को खतरे में डाल दिया था। लेकिन पुलवामा और बालाकोट हमलों ने उग्र राष्ट्रवाद को मजबूत किया। इसे नया जीवन दे दिया। वही किसान, जो कुछ समय पहले सरकार के विरोध में दिल्ली में मोर्चे निकाल रहे थे, उन्होंने ही सरकार के पक्ष में मतदान किया। हाल ही की घटनाओं से इस कार्पोरेट-फाइनेंशियल गठबंधन की पोल खुल रही है।
अनुच्छेद 370 और 35ए के जबरदस्ती किए गए विघटन ने हिन्दुत्व के उग्र राष्ट्रवाद को ईंधन दिया, और अब आर्थिक संकट के हल के रूप से सरकार ने कार्पोरेट कर को कम कर दिया है। जो विपक्ष कार्पोरेट वर्ग के लिए किए गए सार्वजनिक धन के हस्तांरण का विरोध कर सकता था, वह कश्मीर के जश्न में डूबा हुआ है।
तथ्य यह है कि इस कर-रियायत का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। साथ ही रोजगार पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा। कर में दी गई इस छूट को राजकोषीय घाटे से पूरा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह वैश्वीकृत वित्त पूंजी को अलग कर देगा। अतः इस का बोझ कामकाजी-नौकरीपेशा लोगों पर ही पड़ेगा। नौकरीपेशा से हस्तांतरित किसी भी प्रकार के वित्त से अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता मांग कम होगी। आय से बाहर उपभोग करने की प्रवृत्ति, नौकरीपेशा लोगों में अधिक देखी जाती है। कार्पोरेट संस्कृति तो अपनी अतिरिक्त आय को आंशिक रूप से अवितरित लाभांश के रूप में रखती है। उनकी अतिरिक्त आय में से वितरित लाभांश में से उनकी उपभोग करने की प्रवृत्ति कम होती है।
कार्पोरेट निवेश बाजार के बढ़ने पर निर्भर करता है। वर्तमान के कर पश्चात् लाभ में वृद्धि से यह कणमात्र भी नहीं बदला। ऐसी कर-रियायत से निवेश में कोई वृद्धि नहीं हो सकती। अतः ओवरऑल मांग कम होगी। इससे निवेश और कम होगा, तथा अर्थव्यवस्था में अधिक गिरावट आएगी।
आय का विभाजन
यह आर्थिक संकट, नव उदारवादी पूंजीवाद द्वारा आय में की गई असमान वृद्धि की देन है। पूरा विश्व इससे जूझ रहा है। इसने आय को किसान, काश्तकार, शिल्पकार, मछुआरों आदि कामकाजी लोगों से लेकर कार्पोरेट को दे दिया है।
मांग के कम होने से भारत और विश्व-स्तर पर भी सम्पत्ति के दाम कम हो रहे हैं। इस संकट में विमुद्रीकरण और जीएसटी ने बढ़ोत्तरी की है। अब कार्पोरेट को आय हस्तांतरित करके सरकार एक और गलत कदम उठा रही है। लेकिन जब तक सरकार हिन्दुत्ववादी उग्र-राष्ट्रवाद को जीवित रखेगी, तब तक वह लोगों का ध्यान भटकाने में सफल रहेगी। सवाल यह है कि वह इस उग्र राष्ट्रवाद की मार्केटिंग कैसे कर पा रही है?
इसका कारण तो लोगों के मन में जीम हुई भय और असुरक्षा की भावना है। सरकार के विरुद्ध कही जाने वाली किसी भी बात को ‘देशद्रोह’ या राष्ट्र-विरोधी माना जाता है। सामान्यतः कार्यकारिणी का साथ देने वाली न्यायपालिका से कुछ राहत जरूर मिलती है। राजनैतिक विरोधियों को केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय के लोग डराते-धमकाते हैं। इसके अलावा भी परेशान करने के अनेक तरीके ढूंढ लिए जाते हैं। इस संदर्भ में मीडिया भी एक ही पक्ष को प्रस्तुत करती है। इसके सच्चे पक्ष पर कई लोग ध्यान भी नहीं देते हैं।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित प्रभात पटनायक के लेख पर आधारित। 3 अक्टूबर, 2019