कानूनी दार्शनिकों (Legal Philosophers) का अभाव
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समाज में कभी जब कानूनी सिद्धांतों या न्याय, नैतिकता, मानवता, स्वतंत्रता और सम्मान के प्रति उसके दृष्टिकोण पर सवाल उठाया जाता है, तो उन प्रश्नों का उत्तर सदा कानून को मथने वाले दार्शनिकों से ही मिलता है। आज दुख की बात यह है कि देश और समाज ने अपने कानूनों की नींव रखने वाले उन्हीं दर्शनिकों को भुला दिया है।जिस समाज को उद्देश्य शांति हो, उस समाज के कानूनी चिंतकों को तीन प्रकार के कत्र्तव्य निभाने पड़ते हैं।
- एक चिंतक समाज में मानवीय अस्तित्व को समझाने के लिए नियम-कानून, न्याय एवं अन्य सिद्धांतों के बीच के संबंधों की व्याख्या करता है।
- वह समाज में स्थापित कानूनी दर्शन पर एक आलोचक की दृष्टि से नजर रखता है।
- वह कानूनी सिद्धांतों के अनुसार न्यायालयों के फैसलों और कानूनों की जांच-परख करता है।
सदियों से ये कानूनी दार्शनिक (चिंतक) हमारी सरकार नामक संस्था को गढ़ने में अमिट छाप छोड़ते आए हैं। आज की हमारी शासन व्यवस्था और बहुत से कानून इन दार्शनिकों की व्याख्याओं पर ही विकसित किए गए हैं। अरस्तू के अनुसार, ‘कानून का उद्देश्य ऐसे समाज का निर्माण करना है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसका बकाया मिल सके।’’ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ‘‘राजा को कानून का प्रधान माना गया। परंतु वह भी धर्मशास्त्र के नियमों के अधीन काम करने को बाध्य था।’’ इंग्लिश कानून को बनाने और विकसित करने में विलियम ब्लैकस्टोन की पुस्तक ‘कमेन्टरीज़ ऑन द लॉ आफ इंग्लैण्ड’ की बड़ी भूमिका रही है। जॉन ऑस्टिन का ‘ईश्वर के आदेश को ही कानून’ मानने का सिद्धांत बहुत लोकप्रिय रहा। विश्व युद्धों की भयावहता ने एक नई तरह की दार्शनिकता की लहर चलाई, जिसमें यह माना गया कि हर व्यक्ति के कुछ अविच्छेद्य अधिकार होते हैं, शासन व्यवस्था के कानून भी जिनका हरण नहीं कर सकते। उस दौर के अनेक कानूनी दार्शनिकों के विचारों की छाप चार्टर ऑफ यूनाइटेड नेशन्स, यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स, यूरोपियन कन्वेशन आन ह्यूमन राइट्स और 1959 डिक्लेरेशन ऑफ डेल्ही ऑन द रूल ऑफ लॉ जैसे अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों और समझौतों पर पड़ी।
कानूनी दार्शनिकों का दूसरा काम पहले से ही स्थापित अन्य दार्शनिकों के सिद्धांतों को आलोचक या विश्लेषक की दृष्टि से देखना है। इस कड़ी में लॉन फुलर का नाम लिया जा सकता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द मोरालिटी ऑफ लॉ’ में एक ऐसे काल्पनिक राजा को चित्रित किया है, जिसकी कानूनी शक्ति विफल होती रहती है, क्योंकि उसके कानून हर जगह लागू नहीं होते। इसके कारण उसके यहाँ के हर मामले का निपटारा अस्थायी तौर पर ही होता है। दूसरे, उसकी प्रजा को उसके बनाए कानूनों की जानकारी ही नहीं होती। वह पूर्व तिथियों से कानून लागू करके कानून की शक्ति का दुरुपयोग करता है। उसके नियमों में स्पष्टता का अभाव है। उसके नियम आपस में विरोधी हैं। उसके नियम इतनी जल्दी बदलते हैं कि प्रजा उनके अनुसार अपने को ढाल नहीं पाती। वह अपने शासन को अधिनियमित कानूनों के अनुरूप चलाने में विफल है। फुलर ने इसके द्वारा यह सिद्ध करना चाहा कि एक अच्छा राजा अपने काल्पनिक राजा की असफलता से सीख लेगा और वैसा नहीं करेगा। फुलर के इस सिद्धांत का अफ्रीका में बहुत पालन हुआ। परन्तु वहाँ की रंगभेद नीति ने अंत में इस सिद्धांत में भी संदेह पैदा कर दिया और आलोचकों ने भी उसके चिंतन से असहमति दिखाई।
किसी कानूनी दार्शनिक का तीसरा कत्र्तव्य न्यायिक आदेशों एवं कानूनों की बारीकी से जाँच करना होता है। यह जाँच दार्शनिक दृष्टिकोण से की जाती है। अगर भारत के परिपेक्ष्य में देखा जाए, तो एक कानूनी दार्शनिक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के फैसले पर कुछ सवाल जरूर उठाता। वह यह जरूर जानना चाहता है कि ‘अगर हमारा संविधान जनता और सरकार के बीच एक सामाजिक समझौता है, तो इस समझौते के किस बंध के अनुसार जनता ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार न्यायपालिका को दे रखा है? और अगर यह कहा जाए कि ऐसा प्रावधान संविधान में तो लिखित नहीं है, परंतु संविधान के आधारभूत सिद्धांतों में दिया गया है, तो एक कानूनी दार्शनिक अवश्य ही यह प्रश्न उठाता कि क्या ये आधारभूत सिद्धांत भी संविधान के पूरक सामाजिक करार हैं, जिसे जनता की इच्छा के विपरीत भी प्रयोग में लाया जा सकता है? अगर ऐसा है, तो इन आधारभूत सिद्धांतों की प्रकृति स्पष्ट होनी चाहिए और साथ ही उसे संसद में भी प्रस्तुत किए जाने की मान्यता होनी चाहिए। इस प्रकार की दुविधाओं में हम कई बार कानूनी दार्शनिकों का अभाव महसूस करते हैं। आज के दौर में कई कठिन प्रश्न खड़े हो चुके हैं, लेकिन उनका उत्तर ढूंढने वाले कानूनी दार्शनिक कहीं नजर नहीं आ रहे हैं।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित एन.एल.राजा के लेख पर आधारित।