एक बहस शैक्षणिक स्तर में सुधार के लिए भी हो
Date:29-04-19 To Download Click Here.
सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों में घटती शिक्षा की गुणवत्ता ने देश के युवाओं के वर्तमान और भविष्य को अधर में लटका रखा है। हमारे देश में 65-70 प्रतिशत युवा सरकारी शिक्षण संस्थानों में पढ़ते हैं। जो बाकी के 30 प्रतिशत हैं, वे भी निचले स्तर की शिक्षा से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं। शिक्षा की गुणवत्ता में ऐसी गिरावट से मानवीय क्षमता या दूसरे शब्दों में कहें, तो उत्पादकता पर प्रभाव पड़ता है, और यह राष्ट्रीय हानि है।
कारण क्या हैं ?
- शिक्षा के स्तर में आई गिरावट का एक बहुत बड़ा कारण शिक्षकों की अनुपस्थिति है। प्राथमिक स्तर के विद्यालयों में खर्च होने वाली राशि की एक-चैथाई हानि इसी मुख्य कारण से हो रही है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष होने वाले इस नुकसान का अनुमान 2 अरब डॉलर है। विद्यालयों के प्रत्येक स्तर पर शिक्षकों की अनुपस्थिति का यही हाल है। इससे वंचित वर्ग के युवाओं को सबसे अधिक नुकसान होता है।
शिक्षा में लगने वाले कुल समय में लगातार आने वाली कमी का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है।
- देश के नेता रोजगार और बेरोजगारी पर बड़ी-बड़ी बैठकें और सम्मेलन करते रहते हैं। लेकिन उनमें से कोई भी शिक्षा के गिरते स्तर पर चिन्ता व्यक्त करता हुआ नहीं दिखता। शिक्षा के स्तर को सुधारने का काम नेतागण आसानी से कर सकते हैं। परन्तु ऐसा नहीं करने के दो कारण समझ में आते हैं –
(1) नेता वर्ग के लोग अपने बच्चों को उच्च गुणवत्ता वाले निजी शिक्षण संस्थानों में भेजते हैं। इस प्रकार उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाता है।
(2) नेताओं में से कुछ ऐसे हैं, जो अपने मतदाताओं पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए उन्हें अशिक्षित ही रखना चाहते हैं।
- युवा वर्ग को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि शिक्षकों की अनुपस्थिति का उसके भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है। विद्यालय से निकलकर जो युवा उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुँच भी जाते हैं, वे नेताओं द्वारा चलाई जा रही कैंपस पॉलिटिक्स में उलझे रहते हैं। उन्हें भी डिग्री प्राप्त करने का आकर्षण रहता है। इसके बाद के प्रतिस्पर्धात्मक भविष्य के बारे में वे व्यावहारिक स्तर पर सोच ही नहीं पाते हैं। सीखने-पढ़ने के उनके वर्ष बर्बाद होने के बाद वे बेरोजगारी के आंकड़ों में वृद्धि करते जाते हैं।
समाधान
अगर राजनैतिक इच्छा शक्ति प्रबल हो, तो शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से सुधार करके उसकी गुणवत्ता को सुधारा जा सकता है। शिक्षकों की अनुपस्थिति को नियंत्रण में रखना, पेरेंट-टीचर मीटिंग करना, स्कूलों में होने वाली अतिरिक्त गतिविधियों के लिए पूर्व छात्र-छात्राओं का एवं स्थानीय सहयोग प्राप्त करना, रोजगार के व्यवसाय से जुड़े विषयों पर विशेष कक्षाएं करवाना, पुस्तकालय, शौचालय, कम्प्यूटर लैब आदि की सुविधाएं उपलब्ध कराना आदि कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनसे स्कूलों के स्तर को सुधारा जा सकता है।
इन सबसे ऊपर शिक्षा के लिए दी जा रही निधि का न्यायोचित प्रबंधन करना है। शिक्षण के स्तर में सुधार के लिए अतिरिक्त और विशाल पूंजी की जरूरत नहीं है।
शिक्षा के परिणाम तुरन्त नहीं देखे जा सकते हैं। परन्तु इतना निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि उपरोक्त उपायों से सकारात्मक प्रगति अवश्य होगी।
देश में युवा मतदाताओं की संख्या बहुत ज्यादा है। 2014 से लेकर अब तक 4.5 करोड़ युवा मतदाता जुड़ चुके हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार प्रतिवर्ष 2 करोड़ बच्चे 18 वर्ष के हो जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार 2020 तक भारत की जनसंख्या में 34 प्रतिशत युवा पीढ़ी होगी। जनसंख्या के इस बड़े भाग की प्रगति और मांग की कोई भी राजनैतिक दल अवहेलना नहीं कर सकता। युवा पीढ़ी की शिक्षा, प्रशिक्षण और रोजगार जैसी अपनी प्राथमिकताओं के लिए राजनैतिक दलों पर दबाव बनाना चाहिए और इसे दलों के घोषणा पत्र की प्राथमिकता में शामिल कराने का प्रयास किया जाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संजय कुमार के लेख पर आधारित। 2 अप्रैल, 2019