इतिहास का सच

Afeias
24 Feb 2020
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Date:24-02-20

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1943 में, भारत छोड़ो के आह्यन के कुछ महीनों बाद, गांधीजी ने ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा दुनिया भर में किए जाने वाले भारत विरोधी प्रचार के विरूद्ध 21 दिनों का उपवास शुरू कर दिया। उस दौरान गांधी ने जेल में ही, जेल से बाहर रह रहे एकमात्र वरिष्ठ नेता सी. राजगोपालाचारी से मुस्लिम लीग की पाकिस्तान वाल मांग पर चर्चा की थी। इस चर्चा से दोनों नेता सहमत थे, और इसे सी.आर. फार्मूला नाम दिया गया। इस फार्मूले के अनुसार अगर लीग स्वतंत्रता के लिए एक साझा अभियान में कांग्रेस में शामिल हो गई, तो कांग्रेस, उत्तर-पश्यिम और पूर्व के मुस्लिम बहुल जिलों में स्वतंत्रता के बाद के जनमत संग्रह को स्वीकार कर सकती है।

1945 में गांधी ने जिन्न से 14 बार मुलाकात की और सी आर फार्मूले पर मनाने की कोशिश की। परंतु वार्ता विफल रही। इस फार्मूले पर बनने वाले पाकिस्तान को जिन्न ने पाँच आधारों पर अस्वीकृत कर दिया। (1) यह क्षेत्र बहुत बड़ा नहीं था। इसमें पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल को शामिल नहीं किया गया था। (2) यह पर्याप्त संप्रभु नहीं था। संधि के प्रस्तावित गठबंधन में संप्रभुता को छोड़ दिया गया था। (3) योजना में शामिल क्षेत्र सभी लोगों को पाकिस्तान पर वोट देने का अधिकार दिया गया था, जबकि जिन्न यह अधिकार केवल मुस्लिमों को देना चाहते थे। (4) गांधी, स्वतंत्रता के बाद अलग होने के लिए मतदान चाहते थे, जबकि जिन्न  चाहते थे कि भारत छोड़ने से पहले अंग्रेज, भारत को विभाजित कर दें। (5) अंत में, जिन्न  की शिकायत सामने आ ही गई कि गांधी अलग-अलग मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के अधिकार को स्वीकार कर रहे हैं, परंतु वह यह मानने से इंकार कर रहे थे कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं।

अगस्त, 1947 को जिन्न को पाकिस्तान के रूप में उतना ही क्षेत्र मिला, जितना गांधी ने पहले प्रस्तावित किया था। परंतु इसे उन्होंने किसी समझौते की बाध्यता के बिना प्राप्त किया। इस विभाजन के बाद भी गांधी और कांग्रेस के अन्य नेता हिंदू और मुस्लिम जैसे दो अलग-अलग राष्ट्रों की अवधारणा को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। दरअसल, 1947 में हुआ यह विभाजन ऐसा था भी नहीं। वह तो बाद में पाकिस्तान ने मुस्लिम राष्ट्र बनने का विकल्प चुना, जबकि भारत सभी को समान अधिकार देने वाला राष्ट्र बना रहा, और मजबूती से अपने संविधान पर टिका रहा। इसमें जाति, लिंग और वर्ग के आधार पर नागरिकों से भेदभाव का कोई विकल्प नहीं था।

प्रधानमंत्री मोदी ने नेहरू पर विभाजन का आरोप लगाया है, जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। इसके अलावा, अगर विभाजन नहीं हुआ होता, तो आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश के सभी निवासी आजादी से भारत के किसी भी कोने में जाने के लिए स्वतंत्र होते।

यहाँ यह याद रखना आवश्यक है कि 1940 के बाद मुस्लिम लीग ने और 1937 से हिंदू महासभा ने दो राष्ट्र सिद्धांत की वकालत की थी। फिर भी स्वतंत्रता के समय इसे माना नहीं गया। यह भी याद रखना जरूरी है कि 1949 के अंत में अंगीकृत किए गए भारतीय संविधान में भी इस सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया गया था।

एक-दूसरे के प्रति अज्ञानता रखना लगभग हर समाज की एक वास्तविकता है। यही पूर्वाग्रहों का के साथ भी हैं। लेकिन मानव-इतिहास में बढ़ती जागरूकता की कहानी ऐसी है, जो हम सभी के लिए समान है।

जब अमेरिका में एक कोरियाई फिल्म ऑस्कर जीत सकती है, जब अनेक एशियाई लोग यूरोप और उत्तरी अमेरिका में विभिन्न पदों पर आसीन हो सकते हैं, तो ऐसे में दो राष्ट्र सिद्धांत को केवल एक प्रतिगामी अतीत के अवशेष के रूप में देखा जा सकता है।

यदि बहुत पहले की बात करें, तो लोग वास्तव में नस्ल, धर्म, जाति के आधार पर हीनता या श्रेष्ठता का भेद करते थे। लेकिन आज हम इन सबकी व्यर्थतता को समझते हैं।

दो राष्ट्र सिद्धांत को पूरी तरह से खारिज किया जाना चाहिए। केवल इतना होना काफी नहीं है कि कोई कानून धर्म के आधार पर भारतीय नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। किसी विशेष धर्म के प्रवासियों को नागरिकता न देने का मार्ग, संविधान के उल्लंघन के साथ-साथ दो राष्ट्र सिद्धांत की एक अपुष्ट अभिव्यक्ति है।

प्रवासियों के लिए लागू किया गया सिद्धाँत, कल उन साथी नागरिकों पर भी लागू किया जाएगा, जिनके पूर्वज कई सौ साल पहले भारतीय थे। अंततः यह पड़ोसी को पड़ोसी के विरूद्ध खड़ा कर देगा। इसे सताए हुए लोगों की आड़ लेकर, किसी भी स्थिति में हवा नहीं दी जानी चाहिए।

‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित राजमोहन गांधी के लेख पर आधारित। 13 फरवरी, 2020