विश्वविद्यालय कोई निगम नहीं होते
Date:26-04-21 To Download Click Here.
विश्वविद्यालय, विशिष्ट सामाजिक संगठन होते हैं। वे निगम नहीं हैं, न ही वे प्रबुद्ध मंडल, अनुसंधान संगठन, सरकारी एजेंसी या जन संगठन हैं। विश्वविद्यालय ऐसी भूमिकाएं करते हैं, जो अन्य संस्थाओं के कुछ इरादों और लक्ष्यों को दर्शा सकती है, लेकिन वे अद्वितीय हैं और समाज के बड़े संदर्भ में स्थापित किए गए हैं।
अपने प्रसिद्ध लेख ‘द आइडिया ऑफ ए यूनिवर्सिटी’ में जॉन हेनरी न्यूमैन लिखते हैं, “विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम को अगर एक व्यावहारिक पक्ष सौंपा जाए, तो वह समाज के अच्छे सदस्यों को प्रशिक्षित करना हो सकता है। शिक्षा, उन्हें उनके अपने विचारों और निर्णयों के बारे में एक स्पष्ट – सचेत दृष्टिकोण, उन्हें विकसित करने में सच्चाई एवं उन्हें व्यक्त करने में वाक्पटुता और बल प्रदान करती है।’’
आज दुनियाभर के विश्वविद्यालयों के सामने सबसे बड़ी चुनौती उनके प्रशासन से जुड़ी हुई है। भारतीय विश्वविद्यालय कोई अपवाद नहीं हैं। विश्वविद्यालय का प्रशासन संगठन की बहुमुखी प्रकृति संकाय, कर्मचारियों, छात्रों, अभिभावकों, मान्यता प्राप्त निकायों, सरकारी विभागों, नियामक एजेंसियों, अंतरराष्ट्रीय भागीदारों और दाताओं जैसे अनेक हितधारकों की अपेक्षाओं के कारण जटिल हो गया है। इस संदर्भ में हमें विश्वविद्यालय की समाज में भूमिका को समझने की जरूरत है, और फिर उसका प्रशासन इस तरीके से करना है कि वह अपने विभिन्न हितधारकों की अपेक्षाओं को पूरा कर सके।
दूसरी ओर निगमों ने सदैव राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक विकास में योगदान देने में भूमिका निभाई है। उनका पूरा जोर अपने शेयर धारकों को लाभ पहुँचाने पर रहता है। सामाजिक अपेक्षांए भी इसी उद्देश्य तक सीमित रहती हैं। हालांकि, नए प्रतिमानों की चुनौतियों के मद्देनजर अब निगम भी समाज में अपनी बढ़ती भूमिका पर काम कर रहे हैं। वैश्विक परिदृश्य और धारणीय विकास लक्ष्यों को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र भी अब व्यापारिक संस्थाओं को उनकी व्यापक सामाजिक भूमिका के लिए प्रोत्साहित करना चाहता है।
निगमों की स्थापना लाभ के सिद्वांत और निवेश पर प्राप्ति के आधार पर की गई है। उसकी यह दृष्टि उसके निर्णयों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज के लिए लाभ-प्राप्ति और धनोपार्जन के अलावा निगम रोजगार के निर्माण जैसे वैध और उपयोगी लक्ष्यों को लेकर चलता है।
जबकि विश्वविद्यालयों की स्थापना अनुसंधान के माध्यम से ज्ञान के सृजन और शिक्षण द्वारा इसके प्रसार के दोहरे सिद्धांत पर की गई है। अपने निजी या सार्वजनिक चरित्र से परे एक विश्वविद्यालय सार्वभौमिक रूप से सत्कर्म की ओर प्रेरित हैं। ये युवाओं की उच्च शिक्षा तक पहुँच को आसान बनाते हैं, और इस प्रकार ज्ञान का लोकतांत्रीकरण करते हैं। ये समाज के लिए सार्वजनिक सेवा के रूप में शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान के अवसर प्रदान करते हैं। युवाओं को परिवर्तनकारी नेता बनने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्हें वास्तविक दुनिया को समझने और ऐसा भविष्य बनाने में मदद करते हैं, जो समाज की प्रगति में योगदान दे सकें। निगम के कार्यों की तरह इसके कार्यों को त्रैमासिक , अर्धवार्षिक या वित्तीय वर्ष की तर्ज पर नहीं मापा जा सकता। किसी राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास को गति देने में विश्वविद्यालयों की निर्णायक भूमिका को समझने के लिए एक विशाल क्षितिज की आवश्यकता होती है।
विश्वविद्यालय विचारों के दायरे में काम करते हैं ; ऐसे विचार, जो हमारे समाज और दुनिया के भविष्य को बड़े पैमाने पर आकार दे सकें। विचारों के कई सोपान ऐसे होते हैं, जो केवल लंबी अवधि में ही प्रभावशाली परिणाम दे सकते हैं। लेकिन उन विचारों को आगे बढ़ाने के लिए निरंतर उनका अनुसरण करना पड़ता है। यह न केवल तकनीकी चिकित्सा जैसे विषयों, बल्कि मानविकी और सामाजिक विज्ञान के व्यापक क्षेत्रों में भी सच है।
दूसरी ओर, निगम लाभ के संदर्भ में धारणीयता को मापता है। इसके लिए राजस्व की अधिकता और लागत को कम करने की आवश्यकता होती है। निगम के कार्यबल की ताकत के संकेतक बिल्कुल भिन्न होते हैं। इनका पूरा ध्यान न्यूनतम लागत पर एक उत्पादक कार्यबल के माध्यम से अधिकतम राजस्व की प्राप्ति पर होता है। जबकि, विश्वविद्यालय अपने संकाय-छात्र अनुपात में सुधार पर लगातार काम कर रहे हैं। विश्व के सबसे पुराने ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय इस तथ्य को गर्व के साथ रेखांकित करते हैं कि उनके पास ऐसी ट्यूटोरियल प्रणाली है, जहाँ संकाय के सदस्य छात्रों को व्यक्तिगत तौर पर सहायता प्रदान कर सकते हैं।
विश्वविद्यालयों के लिए समाज में उनकी भूमिका और प्रभाव को फिर से परिभाषित किया जाना चाहिए। सभी प्रकार के विश्वविद्यालयों को उनके निर्धारित प्रतिमान (समाज में योगदान) के लिए अधिक प्रतिबद्ध बनाए जाने की आवश्यकता है। इस हेतु शिक्षण और अनुसंधान में उत्कृषता को बढ़ावा देने, अनुकूल नियामक तंत्र बनाने और विश्वविद्यालयों को आर्थिक रूप से मजबूत करने की जरूरत है। विश्वविद्यालय संगठनात्मक संरचनाओं के बंधन में कार्य नहीं कर सकते हैं।
विश्वविद्यालयों के निर्माण और विकास के लिए निगम सीएसआर पहल और परोपकारी दान के माध्यम से संसाधन उपलब्ध करा सकते हैं। जहाँ सार्वजनिक विश्वविद्यालय सरकारी सहायता से चलते हैं, वहीं निजी विश्वविद्यालय काफी हद तक निजी धन और दान पर निर्भर होते हैं। दोनों ही मामलों में, वित्तीय संसाधनों पर निर्भरता से विश्वविद्यालय की स्वायत्तता या स्वतंत्रता को कमजोर नहीं पड़ना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी इस बिंदु को रेखांकित किया गया है।
किसी विश्वविद्यालय की जवाबदेही उसके घोषित मिशन को पूरा करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता और क्षमता के आधार पर हासिल की जानी चाहिए। किसी विश्वविद्यालय का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य, शिक्षण और अनुसंधान में उत्कृष्टता होना चाहिए।
विद्यार्थियों का स्थान, संस्थागत प्रशासन के केंद्र में होता है। उनकी आकांक्षाओं और लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सभी प्रयास किए जाने चाहिए।
विश्वविद्यालयों की तुलना निगमों से नहीं की जानी चाहिए।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सी राज कुमार के लेख पर आधारित। 3 अप्रैल, 2021