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वन संरक्षण कानून में बदलाव
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अभी तक औद्योगीकरण ने वन भूमि और पारिस्थितिक तंत्र के बड़े हिस्से को हड़पने का प्रयत्न किया है। वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 ऐसा कानून रहा है, जिसने सरकार को औद्योगीकरण को विनियमित करने का अधिकार दिया है। 1996 के गोदावर्मन मामले में उच्चतम न्यायालय ने नीलगिरि जिले की वन-भूमि की रक्षा के दायरे को व्यापक करते हुए एक ऐतिहासिक निर्णय भी दिया था। वर्तमान कानून में ऐसे बहुत से बदलाव किए गये हैं, जो वन भूमि के व्यावसायिक उपयोग को बढ़ावा देंगे। कुछ बिंदु –
- संशोधित अधिनियम में 1996 के निर्णय की सीमाओं को परिभाषित करते हुए अभिलिखित वन क्षेत्र के बाहर की 1509 वर्ग कि.मी. भूमि को निजी कृषि-वानिकी उपयोग की अनुमति देने की बात कही गई है।
- इसके अनुसार 1980 या उसके बाद के सरकारी रिकार्ड में अभिलिखित वन भूमि पर ही अधिनियम के प्रावधान लागू होंगे।
- 1980-1996 के बीच सरकार ने जिस वन-भूमि को गैर-वानिकी उपयोग के लिए मुक्त कर दिय था, उस पर 1980 कानून के प्रावधान लागू नहीं होंगे। इससे स्पष्ट है कि अब राज्य सरकारें अपनी मर्जी से गैर वगीकृत वन क्षेत्र को आधिकारिक वन क्षेत्र घोषित नहीं कर सकती।
- संशोधन में भारतीय सीमा के पास के 100 कि.मी. के वन भूमि को केंद्रीय स्वीकृति के बिना भी ‘रणनीतिक और सुरक्षा’ उद्देश्यों के लिए विनियोजित करने की अनुमति दे दी गई है।
- यह संशोधन वास्तव में प्राकृतिक वन को पुनर्जीवित करने में योगदान नहीं देता है, बल्कि व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए वनीकरण को प्रोत्साहित करता है। इन निजी वनों से कार्बन भंडार होने की उम्मीद नहीं रखी जा सकती है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 12 जुलाई, 2023
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