शोध के लिए धन की व्यवस्था
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केन्द्र सरकार संसद के वर्तमान मानसून सत्र में राष्ट्रीय शोध फाउंडेशन (NRF) विधेयक प्रस्तुत करने जा रही है। इसके अंतर्गत शोध के लिये अगले पाँच वर्षों में 50 करोड़ की व्यवस्था की गई है। इसका प्रारूप अमेरीका के नेशनल साइंस फाउंडेशन से लिया गया है, जिसका बजट लगभग आठ अरब डालर का है। इससे वहाँ महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में शोध के लिये धन उपलब्ध कराया जाता है। कुछ इसी तरह की व्यवस्था यूरोपीयन रिसर्च कौंसिल की भी है। फाउंडेशन लगभग 36 करोड़ रुपये निजी क्षेत्र से प्राप्त करने की कोशिश करेगा।
पिछले लगातार कई वर्षों से शोध पर भारत का खर्च जीडीपी का 0.6 प्रतिशत से 0.8 प्रतिशत के बीच का रहा है, जो विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत ही कम है। चीन, अमेरीका और इज़राइल जैसे देशों में निजी क्षेत्र शोध पर होने वाले कुल खर्च का लगभग 70 प्रतिशत देते हैं। जबकि भारत में यह टोटल खर्च का मात्र छत्तीस प्रतिशत ही है। ऐसी स्थिति में भारत के लिये यह बहुत जरूरी है कि वह इसके लिये निजी क्षेत्र को आकर्षित करे। लेकिन विधेयक में ऐसी कोई व्यवस्था दिखाई नहीं दे रही है।
‘द हिंदू’ समाचार पत्र ने अपने संपादकीय में इसके लिये निजी कम्पनियों द्वारा सोशल रिस्पांसिबिलिटी के अंतर्गत किये जाने वाले खर्च का कुछ प्रतिशत शोध के लिये रखे जाने को अनिवार्य करने की सलाह दिया है। सन् 2022 के वित्तीय वर्ष में कम्पनियों ने सीएसआर के अंतर्गत केवल 14588 खर्च किये थे। इनमें से लगभग सत्तर प्रतिशत धन शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता पर खर्च किया गया। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि कंपनियां यह खर्च ज्यादातर अपने ही समुदायों पर करती हैं। ऐसी स्थिति में सरकार उन्हें शोध के लिये कानूनी रूप से बाध्य कर सकती है और उस पर कर की छूट देकर इसके लिये प्रेरित भी कर सकती है।
‘द हिंदू’ का एक मत यह भी है कि विदेशों में निजी क्षेत्र शोध के लिये इसलिये आगे आते हैं, क्योंकि वहाँ की सरकारें विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थानों को इसके लिये काफी धन उपलब्ध कराती है। बाद में जब यहाँ से शिक्षित विद्यार्थी उद्यमी के रूप में काम करते हैं, तो शोध के महत्व को बहुत अच्छे तरीके से समझने के कारण वे इस पर काफी खर्च करने लगते हैं। हमारी सरकार को भी इस तरह के प्रयास करने चाहिये।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 21 जुलाई, 2023