सरकार का आतंकी रूप

Afeias
28 Oct 2020
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Date:28-10-20

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कहने को तो भारत एक लोकतंत्र है, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। परंतु इस स्वतंत्रता पर संविधान के प्रथम संशोधन में ही सीमा लगा दी गई थी। आज ये बेडियां उच्चतम न्यायालय के द्वारा भी लगाई जा रही हैं। हाल ही में न्यायालय ने सुदर्शन टीवी को अपने एक कार्यक्रम के आगामी एपिसोड दिखाने की मनाही कर दी है। यह सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकार के नियंत्रण को बढ़ाने का एक तरीका है।

वास्तव में तो यह एक ऐसा मामला है, जहां शीर्ष न्यायालय ने उदार मूल्यों को बनाए रखने के हित में काम किया है। इसे संविधान के उदारवादी दृष्टिकोण को विडंबनापूर्ण रूप से आगे बढ़ाने का कदम माना जा सकता है। हमारा कानून, एक नियम के रूप में मुक्त अभिव्यक्ति से ‘पूर्व संयम’ की अनुमति देता है (वह भी अपवादस्वरूप) । इसके अलावा भी हमारे देश में कई ऐसे कानून और नियमन हैं, जिन्हें प्रोग्रामिंग कोड का उल्लंघन करने, देश की शांति भंग करने और एक समुदाय के अधिकारों का हनन करने के आरोप में सुदर्शन टी वी पर लागू किया जा सकता था।

हमारे देश में नफरत फैलाने वाले भाषणों को नियंत्रित करने के लिए पहले से ही कई आपराधिक कानून हैं। कथित तौर पर इस कार्यक्रम में मुसलमानों को अपमानजनक तरीके से दिखाया गया है, जो उन्हें भड़का सकता है। अगर ऐसा है भी, तो हमारे कठोर दंड प्रावधानों में से किसी का उपयोग किया जा सकता था।

इस मामले को लेकर फ्रांस का उदाहरण सामने रखा जा सकता है। अभी कुछ सप्ताह पहले ही वहाँ की एक पत्रिका ने हजरत मोहम्मद पर बने कुछ कार्टून को पुनः प्रकाशित किया है। सन 2015 में इसी पत्रिका द्वारा प्रकाशित इन कार्टूनों के विरोध में उनके कार्यालय पर हमला हुआ था। इस प्रकाशन को फ्रांसिसी न्यायालय में चुनौती दी गई, लेकिन निर्णय, पत्रिका के पक्ष में दिया गया। न्यायालय का कहना था कि वह संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रतिबद्धता का पालन कर रहा है। भारत की तरह फ्रांस में भी इस प्रकाशन के विरूद्ध अनेक प्रदर्शन हुए, और सरकार पर अल्पसंख्यकों से भेदभाव का आरोप लगाया गया था। लेकिन किसी ने भी प्रकाशन को कार्टून छापने से नहीं रोका। सशक्त लोकतंत्रों में, सही निर्णय के लिए जनता की क्षमता में विश्वास रखा जाता है।

भारत का मामला भिन्न है। सुदर्शन टीवी पर लगाम लगाए जाने के बाद, उदारवादी हलकों में एक जीत की लहर सी दौड गई है। क्या ऐसी पूर्व संयम वाली सेंसरशिप प्रशंसनीय कही जा सकती है? अगर यह प्रशंसनीय है, तो फिर आंध्र उच्च न्यायालय द्वारा उच्चतम न्यायालय की न्यायधीश की बेटी से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोपों की खबरों को प्रकाशित करने पर लगा पूर्व संयम भी प्रशंसनीय ही कहा जाना चाहिए।

सच्चाई तो यह है कि हमारी उदारवादी सरकार और उससे जुड़ी व्यवस्थाए चयनित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पक्षधर है। हाल ही में सरकार के इस रवैये से घबराकर देश के एक नामी प्रकाशन ने 2020 के दिल्ली दंगों पर आने वाली अपनी पुस्तक को वापस गोदाम में बंद कर दिया है। अगर सरकार के इस नवोदित संप्रदाय को स्वतंत्रता और लोकतंत्र की वास्तविक चिंता हैए तो उन्हें संविधान में पहले संशोधन पर एक बहस को शुरू करना चाहिए।

संविधान के संस्थापकों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में पूरा विश्वास था। वे जानते थे कि जनता में गलत को सही करने की क्षमता है।

1951 में नेहरू की सरकार ने मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति के दायरे को सीमित करने के लिए संविधान में संशोधन किया। तब से प्रथम संशोधन का दुरूपयोग दर्जनों पुस्तकों, प्रकाशनों, लेखों, राजनीतिक दलों, नागरिक समूहों, बुद्धिजीवियों, कार्टूनिस्टों को प्रतिबंधित करने और जेल भेजने के लिए किया जाता है। दशकों से पहले संशोधन को आधार बनाकर किए जाने वाला हस्तक्षेप एक चिंताजनक आवृत्ति को प्राप्त कर चुका है। इस प्रकार लोगों के लिए निर्णय लेने वाली सरकार से आनंदित होने के बजाय आतंकित होने की जरूरत है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित राहुल शिवशंकर के लेख पर आधारित। 10 अक्टूबर, 2020

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