दमघोंटू स्टील फ्रेम

Afeias
29 Oct 2020
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Date:29-10-20

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अप्रैल 21, 1947 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के प्रथम बैच के आने के उपलक्ष्य में इस ‘स्टील फ्रेम’ के सर्जक सरदार पटेल ने कहा था कि, ‘भारत के आम जन को अपना समझना आपका परम कर्त्तव्य होगा।’ हाल ही में हाथरस जिले में हुई वारदात के बाद प्रशासनिक अधिकारी सरदार पटेल के वक्तव्य का पालन करते दिखाई नहीं दे रहे हैं।

हर एक घटना को घटने से रोका नहीं जा सकता, परंतु इस घटना के संबंध में जिला कलेक्टर और एसपी ने अगर कुछ सुरक्षात्मक कदम उठाए होते, तो शायद इसे रोका जा सकता था। उनका कर्त्तव्य था कि वे पूरे मामले में संवेदनशीलता, ईमानदारी और अखंडता दिखाते। पीड़िता की मेडिकल सलाह के अनुसार अगर समय पर उसे बेहतर उपचार दिया जा सकता, उसके साथ हुए दुष्कर्म को प्रमाणित करने के लिए कुछ और टेस्ट किए जा सकते, और उसके प्रियजनों को दूर न रखा जाता, तो शायद परिणाम इतने बुरे नहीं होते। जो भी उपाय किए गए, वे अपर्याप्त थे, और देर से किए गए थे।

लगता है कि किसी घटना के हो जाने पर उसे ढंकना ही प्रशासन की वृत्ति हो गई है। एक समाचार रिपोर्टर ने भागते हुए दाह संस्कार के दृश्य को फिल्माया। टेलीविजन पर दिखाई जाने वाली छवियां शर्मनाक और अमानवीय लगती रहीं। सैकड़ों पुलिसकर्मी दंगारोधी उपकरणों से लैस खड़े थे। कलेक्टर ने मानो कर्त्तव्य और संवेदनशीलता के पतन की अति कर रखी थी।

अगर कानून व्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न हो ही गया था, तो आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 144 लगाने की गलती नहीं की जानी थी। शांति बनाए रखने के लिए गाँव में और आसपास बड़ी संख्या में पुलिस बल की तैनाती की जानी थी। परिवार की इच्छानुसार दाह संस्कार किया जा सकता था। तत्पश्चात् परिवार को बंद करने के बजाय प्रवेश को प्रतिबंधित किया जा सकता था। कानून­-व्यवस्था के बिगड़ने की स्थिति में बल का उपयोग हमेशा ही एक विकल्प होता है। इसके लिए तैयार भी रहना चाहिए, परंतु निश्चित रूप से यह पहला विकल्प नही है।

पीड़िता के परिवार को मीडिया व अन्य लोगों से मिलने नही दिया गया। जबकि आरोपियों के पक्ष में बढ़चढकर बोलने वाली पंचायत को इस प्रकार की छूट दी गई। इस दौरान धारा 144 और कोविड के नियमों का क्या हुआ ? इतना ही नहीं, जिला कलेक्टर को पीड़ित परिवार को डराते-धमकाते भी देखा गया। जिले के दोनों शीर्ष अधिकारियों के व्यवहार से स्पष्ट था कि वे आरोपियों का पक्ष ले रहे थे, जो गांव की सवर्ण जाति के हैं और बाहुल्य में हैं। सबूतों को नष्ट करने के दिशा में भी लगातार काम किए गए।

इस पूरे प्रकरण में पीड़िता के परिवार को प्रशासन की ओर से सुरक्षा का कोई आश्वासन नहीं था। वे गांव में उनकी जाति के लोग ही इतने कम हैं कि सवर्ण जाति से उन्हें जान का खतरा बना हुआ है।

किसी जिले के प्रशासनिक अधिकारियों पर अनेक तरह के दबावों का होना सामान्य है। ये दबाव ज्यादा हो या कम हो, इनसे निपटने में प्रशासनिक अधिकारी की शूरता का परिचय मिलता है। ये अधिकारी जिस कुर्सी पर बैठते हैं, उनमें से कोई भी ऐसी नहीं है जिसे न्याय, निष्पक्षता और सहयोग की आस लगाए जनता के समक्ष पतित किया जाए। यही कारण है कि डी एम और एस पी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने की आवश्यकता है। इनकी सजा अनुकरणीय हो, ताकि यह समान पदों पर आसीन अन्य अधिकारियों के लिए चेतावनी बन सके।

इस आपराधिक मामले में इन अधिकारियों के खिलाफ कारवाई की जरूरत है या नहीं, यह पता लगाने के लिए एक जांच का आयोजन किया जाना चाहिए। केवल निलंबन या स्थानांतरण से बात नहीं बनेगी।

लोगों की याददाश्त अल्पकालीन होती है। हम यह भी जानते हैं कि ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ कितने तेज हैं। जल्द ही यह मामला मेज पर जमी फाइलों की गड्डी में तब तक धूल खाता रहेगा, जब तक कि अगला प्रशासन इस पर जोर-शोर से छानबीन न करना चाहे। उन्हीं जिला कलेक्टर और एस पी को बहाल कर दिया जाएगा, और सब कुछ सामान्य रूप से चलता रहेगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अंजलि प्रसाद के लेख पर आधारित। 14 अक्टूबर, 2020

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