सिविल सेवा के स्टील फ्रेम को तोड़ना जरूरी है

Afeias
06 Dec 2019
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Date:06-12-19

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भारत में आर्थिक सुधारों का सिलसिला लंबे समय से चल रहा है। लाइसेंस और नियमन बाधाओं में कमी, जीएसटी, यूपीआई, आधार, दिवालिया कानून तथा कार्पोरेट कर में कमी आदि कुछ ऐसे कदम हैं, जो हमें 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की ओर आगे बढ़ाते हैं। परन्तु पाँच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने, और चीन की प्रति व्यक्ति आय के निकट पहुँचने हेतु हमें भारत के दो करोड़ नौकरशाहों के लिए एक नए प्रकार की मानव पूंजी संबंधी व्यवस्था किए जाने की आवश्यकता होगी।

समृद्धि के लिए उत्पादक फर्मों और श्रमिकों की जरूरत होती है। भारत की पूंजी श्रम के बिना विकलांग है, और श्रम पूंजी के बिना। इसका कारण लंबे-चैड़े नियमन और अनुपालन कानून, और प्रतिवर्ष इनमें होने वाले परिवर्तन हैं। निजी उद्यमों पर लगाए जाने वाले इन अवरोधों के पीछे नौकरशाही का दिमाग काम करता है। इनकी संस्कृति ही कुछ ऐसी बन गई है, जो कानूनों का लचर मसौदा बनाने, सुधारों को खारिज करना, सूक्ष्म व लघु उद्योगों के स्थान पर निजी क्षेत्र की कंपनियों को बड़ा बनाने की मानसिकता पर लगातार चली जा रही है। देश के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने लगभग देश की अथाह पूंजी का विनाश कर दिया है। इन सबमें परिवर्तन की आकांक्षा रखने वालों को सिविल सेवकों के लिए जलवायु परिवर्तन जैसा कुछ करने की आवश्यकता है।

एक नई मानव पूंजी व्यवस्था के लिए संरचना, स्टाफिंग, प्रशिक्षण, प्रबंधन, क्षतिपूर्ति और संस्कृति जैसे छह क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो परियोजनाओं के साथ शुरुआत करने की जरूरत है। संरचना के स्तर पर हमें 55 केन्द्रीय मंत्रालयों एवं सैकड़ों सार्वजनिक उपक्रमों तथा विभागों की आवश्यकता नहीं है। जापान में मंत्रालयों की संख्या नौ, अमेरिका में 14 और ब्रिटेन में 21 है। संरचना के स्तर पर ही दूसरे परिवर्तन के रूप में केवल दिल्ली में 250 से अधिक सचिव रैंक के लोगों को पदस्थ करने की नीति में परिवर्तन करना होगा।

स्टाफिंग में सुधार के लिए स्वीकृत और वास्तविक शक्ति के अंतर को समाप्त करना होगा। यह तभी संभव होगा, जब अच्छे लोग अधिक काम करें, गैर-जरूरी कामों को छोड़ा जाए, तथा गैर-जरूरी पदों को खत्म किया जाए। स्टाफिंग में ही दूसरा सुधार, संज्ञानात्मक विविधता और प्रतिस्पर्धा से किया जा सकता है। इसके लिए 20 प्रतिशत पाश्र्व नियुक्तियां की जानी चाहिए।

प्रशिक्षण परियोजना में पाठ्यक्रमों को आपूर्ति आधारित बनाने के बजाय मांग आधारित बनाया जाना चाहिए। मध्य स्तर पर प्रशिक्षण में निरंतरता को बढ़ाया जाना चाहिए।

प्रबंधन में प्रदर्शन को लेकर किए जाने वाले मूल्यांकन की पद्धति को बदलना होगा। सेना की तरह ही पदोन्नति के अवसर न मिलने पर 50 वर्ष की उम्र पर ही रिटायर होने का प्रावधान लेकर चलना होगा।

निचले स्तर पर वेतन कम किया जा सकता है, और ऊपरी स्तर पर बढ़ाया जा सकता है।

सरकारी काम की संस्कृति में आ चुकी खामियों को दूर करना सबसे बड़ी चुनौती है। भ्रष्टाचार और भेदभाव दो ऐसे नासूर हैं, जिनका ईलाज कठिन है। बहुत से नौकरशाह अधीनस्थों के बीच फैले भ्रष्टाचार को नजरअंदाज करते हैं। या उन प्रक्रियाओं पर सवाल नहीं उठाते हैं, जो भ्रष्टाचार को जन्म देती हैं। नौकरशाही के ये तथाकथित नेता अच्छे कर्मचारियों को तब एक तरह का दंड भी देते हैं, जब उनके मूल्यांकन की रिपोर्ट लिखते हैं। वरिष्ठता के अनुसार पद मिलना, स्वचालित पदोन्नति आदि कुछ ऐसी संस्कृतियां हैं, जो योग्यता को पीछे छोड़ देती है। नीति ऐसी हो, जिससे अयोग्य को कामचोरी पर पदावनीति का डर हो, इसके उलट योग्य को पदोन्नति की उम्मीद हो जाए।

वर्तमान सिविल सेवा लोहे का एक पिंजड़ा बनकर रह गई है। लंबे समय से पिंजड़े में सुरक्षित रह रहे इस जीव को ऐसा बनाने की जरूरत है, जो बाहर निकलकर सरकार की रीढ़ की हड्डी बन सके।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित मनीष सबरवाल के लेख पर आधारित। 9 अक्टूबर, 2019

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