सिविल सेवा परीक्षा: अंग्रेजी बनाम हिन्दी

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13 May 2018
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डॉ०विजय अग्रवाल

जब भी सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम घोषित होते हैं, मीडिया में इसे अंग्रेजी बनाम हिन्दी भाषा का रूप देकर अमूमन यह स्थापित करने की कोशिश की जाती है कि हिन्दी माध्यम वालों का चयन नहीं होता है। अभी भी इस परीक्षा पर अंग्रेजी भाषा का दबदबा है, और ऐसा जानबूझकर किया जाता है। ‘‘अंग्रेजी भाषा का दबदबा है’’, इस निष्कर्ष से कोई एतराज नहीं है, क्योंकि यह सही है। लेकिन इस अनुमानित एवं सौ प्रतिशत गलत तथ्य के प्रति विरोध जरूर है कि ‘‘ऐसा जानबूझकर किया जाता है,’’ या कि ‘‘यह परीक्षा अंग्रेजी वालों के पक्ष में है।’’ चूंकि इस परीक्षा के जरिये देश के शीर्षस्थ नोकरशाहों की भर्ती की जाती है, तथा इसमें हर वर्ष सालों-साल रात-दिन तैयारी कर-करके लाखों स्नातक युवा बैठते हैं, इसलिए इसके सत्य को जानना निहायत ही जरूरी है। अन्यथा तो हम अप्रत्यक्ष रूप से संघ लोक सेवा आयोग की निष्पक्षता पर ही संदेह कर रहे हैं।

कुछ ही दिनों पहले वर्ष 2017-18 के रिजल्ट आये हैं। इसमें शुरू के 25 सफल विद्यार्थियों में एक भी हिन्दी अथवा क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से नहीं है, यह सच है। लेकिन इस सच के पीछे के सच को जाने बिना यह सच एकदम अधूरा रह जाता है, एक अर्धसत्य की तरह; जो असत्य से भी अधिक खतरनाक होता है। हिन्दी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के प्रेमियों के लिए तो इस सत्य के पीछे के सत्य को जानना और भी अधिक जरूरी है, ताकि वे इस दिशा में व्यावहारिक उपाय करके इसके आकंड़ों में कुछ सुधार ला सकें।

भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की तरह संघ लोक सेवा आयोग भी हर साल अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी करती है। इसमें सिविल सेवा परीक्षा के परिणामों के बारे में बहुत विस्तार के साथ खुलासा किया जाता है। फिलहाल वर्ष 2016 के परिणाम के आँकड़े उपलब्ध हैं। हम इन्हीं के कुछ आँकड़ों के आधार पर यहाँ भाषा संबंधी सत्य को जानने की कोशिश करते हैं।

तीन स्तरों वाली इस परीक्षा के जरिये हर साल विभिन्न 25 सेवाओं के लिए लगभग एक हजार युवाओं को चुना जाता है। इन अंतिम चयनित युवाओं में 51.5 प्रतिशत इंजीनियरिंग से, 13.5 प्रतिशत मेडिकल से तथा 7 प्रतिशत विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले होते हैं। इन सभी का टोटल 72 प्रतिशत है। यानी कि 72 प्रतिशत विद्यार्थियों के विषय स्नातक में मूलतः विज्ञान के विषय होते हैं। यहाँ यह बात गौर करने की है कि विज्ञान की शिक्षा का मुख्य माध्यम अंग्रेजी है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि जब इन स्टूडेन्टस् के सामने भाषा का माध्यम चुनने का विकल्प आता है, तो ये अंग्रेजी को चुनते हैं और चुनना ही चाहिए, क्योंकि भाषा की प्रौढ़ता सिविल सेवा परीक्षा में सफलता का एक अनिवार्य तत्व होता है।

शेष 28 प्रतिशत चयनित विद्यार्थी ही आटर््स की पृष्ठभूमि वाले होते हैं। लेकिन इनमें से भी बहुत से विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़कर आये हुए होते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि आज जब जरा भी ‘अच्छे स्कूल’ की बात आती है, तो वहाँ पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होना इसकी पहली शर्त होती है। सच यह है कि हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में ‘‘तथाकथित अच्छे स्कूलों’’ का अस्तित्व अब हम जैसे लोगों की पुरानी स्मृतियों में ही रह गया कि जो सरकारी हिन्दी स्कूलों में पढ़कर आये और आज से 35 साल पहले हिन्दी मीडियम से सफलता भी पा सके। वर्तमान शिक्षा के इस भाषाई चेहरे को समझे बिना हिन्दी-अंग्रेजी की इस बहस को समझा नहीं जा सकता।

अब हम एक अन्य आँकड़ा लेते हैं। इस परीक्षा का सर्वाधिक प्रिय विषय भूगोल है। टोटल 3500 लड़कों में से हिन्दी माध्यम वाले विद्यार्थी केवल 400 होते हैं, यानी कि लगभग 12 प्रतिशत। अन्य विषयों की भी भाषाई स्थिति यही है। उदाहरण के तौर पर द्वितीय लोकप्रिय विषय लोक-प्रशासनल के कुल 2800 विद्यार्थियों में हिन्दी वाले केवल 186 थे। यहाँ तक कि समाजशास्त्र के 1500 में हिन्दी के थे केवल 76। यहाँ मैं यह बात विशेष रूप से बताना चाहूंगा कि यह चरण इस परीक्षा का दूसरा तथा सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है, और कुल 2025 अंकों वाली इस परीक्षा के 1750 अंक इसी चरण में होते हैं।

इस परीक्षा की एक मजेदार बात यह है कि चयनित होने वाले छात्रों में 87.5 प्रतिशत छात्र आर्ट्स के ही विषयों को तरजीह देते हैं। यह 500 अंकों का होता है। शेष 1250 अंकों में 4 पेपर जनरल स्टडीज़ के होते हैं, जिनमें आर्ट्स के विषय होते हैं। एक पेपर निबंध का होता है, जो आटर््स के स्टूडेन्ट्स के अधिक अनुकूल होता है।

यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि वह परीक्षा पूरी तरह से आर्ट्स के विद्यार्थियों के पक्ष में है। इसके बावजूद सफल होने वालों में तीन-चौथाई छात्र विज्ञान के क्यों हैं? यहाँ यह भी बताना उपयुक्त होगा कि परीक्षा के द्वितीय चरण तक पहुँचने के लिए किसी भी तरह की भाषाई योग्यता की जरूरत नहीं होती। और यह भी कि प्रथम चरण का जनरल स्टडीज़ के वस्तुनिष्ठ प्रकार के पेपर के अधिकांश विषय आर्ट्स वाले होते हैं।

हाँ, मुख्य परीक्षा (द्वितीय चरण) में जनरल इंग्लिश का एक पेपर जरूर होता है, जिसे हिन्दी माध्यम वालों के लिए एक बाधा कहा जा सकता है। लेकिन बहुत ही छोटी-सी बाधा, क्योंकि एक तो इसका स्तर दसवीं कक्षा का होता है। दूसरा इस पेपर को केवल क्वालीफाई करना पड़ता है। उसके प्राप्तांक जोड़े नहीं जाते।

दरअसल, हिन्दी माध्यम वालों की दो सबसे बड़ी समस्या होती हैं, जिसे उन्हें समझना होगा। पहली यह कि उनकी भाषा हिन्दी तो होती है लेकिन वह नहीं, जिसे अकादमिक हिन्दी कहा जाता है। दूसरी यह कि बहुत कम विद्यार्थी अपने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के दौरान विषय के प्रति तार्किक दृष्टि विकसित कर पाते हैं। जो कर लेते हैं, वे सफल हो जाते हैं। तार्किकता अपने-आप ही अपने अनुकूल भाषा की भी तलाश कर लेती है।

जबकि विज्ञान के विद्यार्थी इन दोनों से लैस होते हैं। वे अंग्रेजी जानते हैं, क्योंकि उनकी अंग्रेजी सीखी हुई अंग्रेजी होती है, केवल सुनी हुई नहीं। साथ ही जब वे परीक्षा में आर्ट्स के विषय लेते हैं, तो वे उस विषय को भी विज्ञान की तरह पढ़कर उसे समझने की कोशिश करते हैं, क्योंकि यह उनकी आदत बन चुकी होती है।

अंत में एक बात और। क्या हिन्दी की या तमिल-उर्दू की कॉपी भी अंग्रेजी जानने वाले जाँचेंगे? यदि नहीं, तो क्या ये हिन्दी, तमिल और उर्दूभाषी परीक्षक अपनी ही भाषाओं से विद्वेष रखते हैं? इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

इसलिए समस्या भाषाई द्वेष की नहीं, बल्कि स्वयं को परीक्षा की आवश्यकता के अधिक से अधिक अनुकूल बनाने की है।

NOTE: यह लेख ‘दैनिक जागरण’ के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था।

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