सिविल सेवा परीक्षा में कॉमन सेंस-2

Afeias
12 Mar 2016
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पिछले अंक का समापन इस तथ्य से किया गया था कि कॉमन सेंस सबकी अपनी-अपनी होने के बावजूद सामूहिक होती है। इसे ही हम दूसरे शब्दों में ‘समाज का सामूहिक बोध’ कह सकते हैं। सिविल सेवा परीक्षा के संदर्भ में यह सामूहिक समझ ही ज्यादा महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि इस सामूहिक समझ में ही व्यावहारिकता की झलक मिलती है। हो सकता है कि मेरा अपना कॉमन सेंस उस विषय पर चले आ रहे अब तक के सामूहिक सेंस से बिल्कुल अलग हो और मूल्यवान भी। लेकिन यदि मेरी व्यावहारिकता कमजोर होगी, तो वह एक प्रकार से बेकार हो जाएगी। उदाहरण के तौर पर हम सिविल सर्विस की परीक्षाओं में समाजशास्त्र, ग्रामीण विकास, उदारीकरण तथा देश की अन्य कुछ मूलभूत समस्याओं से जुड़े हुए प्रश्नों को ले सकते हैं। कॉमन सेंस के आधार पर आप इन समस्याओं के निदान के लिए अपनी ओर से कुछ भी उपाय सुझाने के लिए स्वतंत्र होते हैं। लेकिन यदि आपके द्वारा सुझाए गए विचार व्यावहारिक रूप से लागू किए जाने योग्य नहीं हुए, तो जाहिर है कि उसकी उपयोगिता नहीं के बराबर रह जाएगी। इस बारे में दिल्ली सल्तनत के सुल्तान मोहम्मद तुगलक का उदाहरण दिया जाना उचित होगा। मोहम्मद तुगलक ने मुद्रा के रूप में जिस प्रतीकात्मक करेंसी को लागू किया था, वह उसके द्वारा उठाया गया एक अत्यन्त प्रगतिशील और दूरदर्शी कदम था, जो उसने अपने कॉमन सेंस के आधार पर शुरू किया था। लेकिन उसकी यह कोशिश बुरी तरह असफल रही, क्योंकि उसे उस समय उस रूप में लागू किया जाना अव्यावहारिक था। यह बात अलग है कि आज पूरी दुनिया में जितनी भी करेंसी जारी हैं, वे सब प्रतीकात्मक ही हैं। इसीलिए किसी भी बड़ी योजना को लागू करने से पहले सरकार या निजी उद्यमी पहले उसका एक पायलेट प्रोजेक्ट लांच करते हैं, ताकि बड़े स्तर पर लांच करने के दौरान पैदा होने वाली कठिनाइयों को अभी से ही अच्छी तरह समझ लिया जाए।

मेरे यहाँ इतना सब कहने का उद्देश्य आपको केवल इस बात के लिए सतर्क करना है कि आप अपने कॉमन सेंस के साथ-साथ उसकी व्यावहारिकता का भी ध्यान रखें। जहाँ भी चीजें व्यावहारिक होंगी, अक्सर आप पाएंगे कि वे सामूहिक भी होती हैं। यहाँ आप इस कॉमन सेंस को नवाचार;प्दवअंजपवदद्ध का विरोधी समझने की भूल नहीं करेंगे। इन दोनों में फर्क होता है। आगे चलकर आपको यह फर्क समझ में आ जाएगा।

अध्ययन एवं बोध में अन्तर

सिविल सेवा परीक्षा में प्रारंभिक परीक्षा के दोनों पेपर के नाम सामान्य अध्ययन प्रथम एवं द्वितीय हैं। इसी तरह मुख्य परीक्षा केे चार पेपर्स सामान्य अध्ययन के ही होते हैं। ऐसी स्थिति में यदि आपके मन में यह सवाल उठता है कि तो फिर बोध की क्या जरूरत है, तो यह सवाल गलत नहीं होगा। इसी को स्पष्ट करने के लिए मैंने यहाँ इस बिन्दु को रखा है, ताकि आप इन दोनों के अन्तर को विस्तार से समझकर अपनी परीक्षा की तैयारी और इससे भी अधिक अपने उत्तर के लेखन में इन दोनों के बीच एक बेहतर सन्तुलन बना सकें। आइए, अब थोड़ा इसे जानते हैं।
ज्ञानयुक्त बनाम अनुभवजन्य
इससे पहले कि मैं इन दोनों बिन्दुओं को स्पष्ट करूं, यह बता देना सही होगा कि वस्तुतः ज्ञान का क्षेत्र अपने-आपमें इतना व्यापक है कि इसके अंगों को एक-दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग करके देखा नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर अध्ययन, अवलोकन, चिन्तन-मनन, प्रयोग आदि-आदि को। ये सभी तत्व ज्ञान के स्त्रोत का काम करते हैं। हालांकि ये स्रोत तो भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन इतने भी भिन्न नहीं कि इनका एक-दूसरे से कोई वास्ता ही न रहता हो। यह ठीक उसी तरह से है, जैसे कि धरती पर बरसने वाला जल अन्ततः किसी-न-किसी तरीके से समुद्र तक पहुँच ही जाता है। हमारी बुद्धि इसी समुद्र का काम करती है, जो अलग-अलग स्रोतों से अपने लिए सामग्री जुटाती है, उन्हें जांचती है और फिर न जाने किन-किन रूपों में उसे पेश करती है। इसलिए इन सब में जो मुख्य अन्तर होता है, वह केवल कार्यप्रणाली का है न कि उद्देश्य का। उद्देश्य तो सबका एक ही है और वह है ज्ञान प्राप्त करना।

जब हम Genral Studies कहते हैं, तो इसका ‘जनरल’ शब्द कॉमन सेंस के ‘कॉमन’ शब्द से काफी मिलता-जुलता है। लेकिन ये दोनों एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। ‘कॉमन’ शब्द ‘जनरल’ की अपेक्षा अधिक व्यापक है। आप इसे यूँ कह सकते हैं कि ‘कॉमन’ में जहाँ सब कुछ समा जाता है, वहीं ‘जनरल’ में उस सब कुछ का कुछ ही हिस्सा शामिल होता है। यानी कि ‘जनरल’ ‘कॉमन’ की अपेक्षा थोड़ा विशिष्ट है, थोड़ा एक्सक्लूसिव है। जब हम कॉमन सेंस की बात करते हैं, तो उसमें पूरे गाँव या शहर की समझ शामिल होगी। लेकिन जब हम जनरल स्टड़ीज की बात करेंगे, तो जाहिर है कि उसमें पूरा गाँव या समुदाय शामिल न होकर उसका वह एक छोटा-सा हिस्सा शामिल होगा, जो उसमें विशिष्ट है, महत्वपूर्ण है।

अब हम आते हैं ‘स्टड़ीज’ और ‘सेंस’ पर। स्पष्ट है कि स्टड़ी का संबंध पढ़ाई-लिखाई से है। पढ़ने-लिखने की क्षमता स्टड़ी कहलाएगी। इस क्षमता को अर्जित करना पड़ता है। भाषा-ज्ञान के बिना यह संभव नहीं है। जबकि सेंस के लिए स्टड़ी कतई जरूरी नहीं होती। सच पूछिए तो कभी-कभी तो यह लगता है कि स्टड़ी कहीं न कहीं सेंस के लिए बाधक ही बनती है। सेंस जहाँ प्राकृतिक तौर पर अपने-आप पैदा होता है, वहीं अध्ययन को पैदा करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक और कृत्रिमता के बीच एक टकराव की स्थिति बन जाती है। यही टकराव सेंस के रास्ते का रोड़ा बन जाता है। मध्यकाल में जितने भी भक्त और साधु-संत हुए हैं, उनमें से अधिकांशतः अक्षर-ज्ञान से शून्य थे। लेकिन बोध उनमें इतना अधिक और गहरा था कि गंभीर फिलासफी तक की बातों को बहुत सहज तरीके से कह पाने में वे सफल रहे।

जाहिर है कि जब आप जनरल स्टड़ीज की तैयारी करते हैं, तो उसके लिए आपको किताबों का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन जब आप कॉमन सेंस के बारे में सोचेंगे, तो आपको इन किताबों को परे रखना होगा। इसके लिए आपको लोगों के जाकर उनकी गतिविधियों में भागीदार बनना होगा। तब बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के धीरे-धीरे आपमें यह कॉमन सेंस खुद-ब-खुद आता चला जाएगा।

ज्ञान को रटा जा सकता है। उसे समय-समय पर दुहराकर याद रखा जा सकता है। लेकिन बोध पूरी तरह आपके अनुभव पर आधारित होगा। वहाँ रटने के लिए कुछ है ही नहीं। आप समाज में रहते हुए जो कुछ देखते हैं, करते हैं, उसी प्रक्रिया में काफी कुछ सीखते भी चले जाते हैं। कुछ आप अपने अनुभव से सीखते हैं, तो कुछ दूसरों के अनुभवों के बारे में सुनकर सीखते हैं। इसलिए जिसके पास अनुभव की जितनी बड़ी पूँजी होगी, उसके पास बोध का भी उतना बड़ा खजाना होगा। यदि आप चाहें तो इस वक्तव्य की तस्दीक सिद्धार्थ के बुद्ध बनने की प्रक्रिया से कर सकते हैं। उनके पास राजमहल का अनुभव था। महल छोड़ने के बाद वे कई-कई गुरूओं के पास गए। उनके द्वारा बताई गई साधनाएं कीं, लेकिन मन भरा नहीं। अंततः अपनी ही साधना से उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। भले ही ज्ञान की प्राप्ति अपनी ही साधना से हुई हो, लेकिन इस बात की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इससे पहले वे अनुभव के स्तर पर ज्ञान की कई-कई पद्धतियों से गुजर चुके थे। उनकी अपनी साधना पहले की इन साधनाओं से मिलकर एक नए बोध के रूप में हमारे सामने आई। इसलिए बोध के लिए यह आवश्यक होता है कि व्यक्ति जीवन के विविध पक्षों में शामिल हो और बिना किसी पूर्वाग्रह-दुराग्रह के उन्हें अपने अन्दर आने दे। इससे अनुभव बहुपक्षीय होता है तथा अधिक व्यावहारिक भी।
तथ्यात्मक बनाम अनुमान
निश्चित रूप से जब हम अध्ययन करते हैं, तो लगातार तथ्यों की श्रृंखलाओं से गुजरते रहते हैं। घटनाएं, आकड़े, सिद्धान्त और विचारों का एक मेला-सा हमारे दिमाग के सामने रील की तरह घूमती रहती है। हम इनमें से अपने लिए जरूरी तथ्यों को पहचानकर उन्हें अपनी कॉपी में और अपने दिमाग में दर्ज कर लेते हैं। किसी का अध्ययन कितना बेहतर है, इसका प्रमाण ही इस बात से मिलता है कि उसके पास कितने सारे तथ्य हैं। ‘जनरल स्टडीज’ इसी तथ्य की भूमिका होती है। हाँ, यह जरूर है कि गहराई के स्तर पर यह अध्ययन की तुलना में थोड़ा कम गहरा होता है।

जबकि बोध पूरी तरह अनुमान पर आधारित होते हैं। इसमें तथ्यों की भूमिका केवल इतनी होती है कि वे अनुमान लगाने में आपकी मदद कर सकें। ये तथ्य भी पुस्तकों के तथ्य न होकर जीवन्त समाज के तथ्य होते हैं। अभी तक हमने जो कुछ भी देखा-समझा था, अनुमान लगाने से पहले वे फटाफट हमारे दिमाग में कौंधने लगते हैं और उनकी इसी कौंध में हमें अनुमान की एक झलक दिखाई दे जाती है। यह तो जरूरी नहीं है कि ये अनुमान पूरी तरह सच ही हों, लेकिन सच के काफी करीब जरूर होते हैं। जहाँ तक सिविल सेवा परीक्षा में इस अनुमान की भूमिका का सवाल है, उसमें इनका योगदान 75 प्रतिशत सच का होता है।
सुगठित बनाम अनगढ़
अध्ययन की शैली काफी कुछ विज्ञान की शैली है। इसमें चीज़ें सिलसिलेवार आती हैं। और ऐसी सिलसिलेवार तरीके से हमारे दिमाग से कॉपी के पन्नों पर उतरती चली जाती है। ऐसा इसलिए भी होता है, क्योंकि हमने तथ्यों को अपने दिमाग में रखा था। जब उनकी जरूरत पड़ी, तब वे तथ्य बाहर आ गए। इसलिए उनका स्वरूप व्यवस्थित किस्म का होता है। उनकी एक ठोस बुनावट होती है। उनमें उलझाव या बिखराव नहीं मिलता।

बोध ठीक इसके विपरीत होते हैं। बोध पर आधारित अभिव्यक्ति काफी कुछ अनगढ़ और अव्यवस्थित हो सकती है। चूँकि अभिव्यक्ति के समय न जाने कहाँ-कहाँ से कब-कब दिमाग में आई हुई बातें कागज पर उतर रही हैं, इसलिए उन्हें बहुत संभालकर व्यवस्थित रूप से उतार पाना आसान नहीं होता। अक्सर यह देखा गया है कि बोध के स्तर का जो लेखन होता है, उनका आकार छोटा होता है। तुलसीदास की पृष्ठभूमि अध्ययन की पृष्ठभूमि थी। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ जैसा बड़ा ग्रन्थ रचा। जबकि कबीरदास एक अनपढ़ जुुलाहे थे। उन्होंने छोटे-छोटे दोहे लिखे। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इन छोटे-छोटे टुकड़ों की अहमियत किसी भी मायने में इन बड़े ग्रन्थों की तुलना में कम होती है। चूँकि बोध में जीवन का यथार्थ निहित होता है, इसलिए उसमें जीवन की गहराई भी बहुत अधिक होती है। वह अपनी अभिव्यक्ति के लिए आकार की मोहताज नहीं होती।
सीमा बनाम सीमातीत
हम सब के अध्ययन की एक सीमा होती है। ज्यादा अध्ययन करने वालों के साथ अक्सर एक दिक्कत यह देखी गई है कि उनका मस्तिष्क अध्ययन की परिधि में कैद हो जाता है। वे जब भी कोई बात कहते हैं, बीच-बीच में वे अपने अध्ययन के प्रमाण पेश करने लगते हैं। यानी कि दूसरों को कोट करते जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी विद्वता की धाक तो जम जाती है, लेकिन एक मौलिक विचारक बनने से वे चूक जाते हैं। हाँ, वे बहुत अच्छे शोधकर्ता जरूर कहलाते हैं।

बोध का अर्थ ही है- ज्ञानातीत हो जाना। यानी कि अब तक जो कुछ भी पढ़ा-लिखा गया है, उसे भूलकर जो कुछ भी देखा-समझा गया है, उसके आधार पर अपनी बात कहना। इसी स्तर पर आकर व्यक्ति की चेतना सही मायने में स्वतंत्रता का अनुभव करती है। जैसे ही उसका दिमाग अध्ययन के पिंजड़े को तोड़कर बाहर आता है, उन्मुक्त उड़ाने भरने की शुरूआत हो जाती है और वह सीमातीत हो जाता है। बोध के स्तर पर ही सही अर्थों में मौलिकताएं जन्म लेती हैं। अन्यथा तो हम अपने पढ़े हुए को ही अपने शब्दों में दोहराते रहते हैं। जब मौलिकता की बात आती है, तो इसके बारे में कहा जाता है कि ‘‘आप लेखक का नाम लिए बिना उसके कथन को उद्धत कर दीजिए, आप मौलिक हो जाएंगे।’’
मुझे विश्वास है कि अध्ययन और बोध के इस थोड़े से अन्तर को पढ़ने के बाद आप अपने ज्ञान के स्तर का मूल्यांकन सही तरीके से करने में सक्षम हो सकेंगे।

सिविल सर्विस परीक्षा में कॉमन सेंस की भूमिका

आप 2013 से पहले के तथा 2.13 के बाद के प्रश्नपत्रों को उठाकर देखें और थोड़ा-सा ध्यान से पढ़ने की कोशिश करें। ऐसा करने पर आपको निम्न कुछ अन्तर साफ तौर पर नजर आ जाएंगे –

  •  पहले प्रारम्भिक परीक्षा के प्रश्न तथ्यों पर आधारित अधिक थे। बाद में वे बोध पर आधारित अधिक होने लगे।
  • प्रारम्भिक परीक्षा के वैकल्पिक विषय को खत्म करना ही अपने-आपमें प्रमाण है कि इस परीक्षा में अब तथ्यों की भूमिका नगण्य होती जा रही है।
  • प्रारम्भिक परीक्षा में सामान्य अध्ययन द्वितीय का प्रश्न-पत्र तो पूरी तरह बोध पर ही आधारित हैं।
  • मुख्य परीक्षा में जनरल स्टड़ीज के चारों पेपर्स के प्रश्नों को थोड़ा वक्त दीजिए। उन्हें ध्यान से पढ़िए। हो सकता है कि बहुत से प्रश्न आपको बहुत सरल मालूम पड़ा, ये सरल प्रश्न बोध की मांग करते हैं।
  • अधिकांश प्रश्नों के दो भाग होते हैं-पहले भाग में अध्ययन की जरूरत होती है, तो दूसरे भाग में कॉमन सेंस की।
  • अब निबन्धों के विषय भी बदल चुके हैं। खंड-क के निबन्ध तो पूरी तरह कॉमन सेंस पर ही टिके होते हैं। जहाँ तक खंड-ख का सवाल है, उसमें सामान्य अध्ययन और कॉमन सेंस की जुगलबंदी काम करती है।
  • इन्टरव्यू के बारे में आपका ख्याल क्या है?
    मैने यहाँ सिविल सर्विस परीक्षा के प्रश्न पत्रों की एक सामान्य-सी झलकी इस उद्देश्य से दी है, ताकि आप जब आगे पढ़ना शुरू करें, तो थोड़ी गंभीरता बरत सकें। जब हमें यह विश्वास हो जाता है कि यह हमारे बहुत काम की बात है, तो निश्चित रूप से हम उसके साथ अधिक अच्छा, दोस्ताना और गंभीर बर्ताव करते हैं। अंततः इससे फायदा हमें ही होता है। अन्यथा हमारी ज्यादातर पढ़ाई चलताऊ ढ़ंग से तो चलती ही रहती है।
    अब मैं यहाँ सिविल सेवा परीक्षा के अलग-अलग स्तरों के आधार पर कॉमन सेंस के रोल की चर्चा करूँगा।

प्रारम्भिक परीक्षा
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्रारम्भिक परीक्षा का दूसरा पेपर तो पूरी तरह बोध पर आधारित होता ही है, पहले पेपर में भी इसका कम बड़ा रोल नहीं है। सबसे पहले हम पूछे जाने वाले प्रश्नों के स्वरूप को लेते हैं। आप देखते हैं कि लगभग 50 प्रतिशत प्रश्न अपेक्षाकृत बड़े आकार और उलझाने वाले होते हैं। एक वक्तव्य दे दिया जाता है। वक्तव्य के बाद दो, तीन या चार विकल्प दे दिए जाते है। यदि बात यहीं खत्म हो जाए, तो ज्यादा दिक्कत नहीं होती। इन विकल्पों के बाद ही कूट के अन्तर्गत विकल्प दिए जाते हैं, तब कहीं जाकर प्रश्न पूरा होता है। ऐसे में जब आप प्रश्न को पढ़कर पूरा करते हैं, तब तक दिमाग में सारे तथ्य गड्डमगड्ड हो चुके होते हैं। ऐसी हालत में कॉमन सेंस ही आपकी मदद करने के लिए आगे आता है। उदाहरण के तौर पर हम इस इस प्रश्न को देख सकत हैं। प्रश्न है –
निम्नलिखित राज्यों में से किन का संबंध बुद्ध के जीवन से है?
(1) अवंति (2) गांधार (3) कौशल (4) मगध
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए –

(a) केवल 1और 2

(b) केवल 2 और 3

(c) 1, 3 और 4

(d) केवल 3 और 4

इस तरह के पैटर्न का यह सबसे सरल प्रश्न है, अन्यथा विकल्प के रूप में पूरे-पूरे वाक्य दिए जाते हैं। खैर, अब सवाल यह है कि इसे हल करने में कॉमन सेंस कैसे आपकी मदद कर सकता है? यह तो स्पष्ट है कि कोई भी स्टूडेंट एक-एक स्थान के नाम याद नहीं रख सकता। यह संभव ही नहीं है। सच पूछिए तो यह जरूरी भी नहीं है। इसमें मूलतः कॉमन सेंस की ही जाँच की जा रही है। अब हम इस प्रष्न पर अपना कॉमन सेंस लगाते हैं।

इतना तो आपको मालूम ही है कि गौतम बुद्ध का अपना क्षेत्र बिहार और नेपाल के बीच रहा है। आज से ढ़ाई हजार साल पहले जब गौतम बुद्ध हुए थे, उस समय आज की तरह आवागमन के साधन नहीं थे। वैसे भी बुद्ध पैदल ही यात्रा करते थे। ऐसी स्थिति में हमारे अन्दर यह बोध उत्पन्न होगा कि उसी क्षेत्र के स्थान ही बुद्ध के जीवन से संबंधित रहे होंगे। यदि आपकी नक्शे पर थोड़ी भी अच्छी पकड़ है, जो होनी ही चाहिए, तो आपको बिहार और नेपाल के आसपास के उन भागों में कौशल और मगध का नाम मिल जाएगा। अब शेष बचते हैं- अवंती और गांधार। अवंती यानी उज्जैन जो मध्य भारत में है और मगध से काफी दूर भी है। गांधार अफगानिस्तान में है, जो बुद्ध के इन मूल स्थानों से काफी दूरी पर है। ऐसी स्थिति में कॉमन संेस के आधार पर हम उस विकल्प को चुनेंगे, जिसमें मगध और कौशल दिए हुए हों। इस प्रकार कॉमन सेंस का उपयोग करते हुए हम (d) विकल्प पर निशान लगा देंगे।

यहाँ यह बताना उपयुक्त होगा कि कुछ प्रश्नों में तीन वक्तव्य दिए जाते हैं, तो कुछ में दो वक्तव्य भी। हाँ, यह जरूर है कि तीन और दो वक्तव्यों वाले प्रश्नों में उलझाव चार वक्तव्यों वाले प्रश्नों से थोड़ा कम हो है। लेकिन कॉमन सेंस की भूमिका कतई कम नहीं होती। आइए, इस तरह का एक अन्य प्रश्न देखते हैं। प्रश्न है –
निम्नलिखित कूटों पर विचार कीजिए –
(1) भारतीय संघ की कार्यपालिका शक्ति प्रधानमंत्री में निहित है।
(2) प्रधानमंत्री सिविल सेवा बोर्ड का पदेन अध्यक्ष होता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं।
(a) केवल 1,

(b) केवल 2,

(c) केवल 1 और 2,

(d) न तो 1 और न ही 2.

इस प्रश्न के पहले कथन के बारे में आपके मन में शायद ही कोई संदेह हो। यह वक्तव्य किताबों में भी पढ़ने को मिलता है। यह कथन सही है। संकट खड़ा होता है कथन नंबर दो से। उसे पढ़ने के बाद हमारा दिमाग एक अलग ही तरीके से सोचना शुरू करता है। वह सोचता है कि चूँकि आय.ए.एस. देश की सर्वोच्च सेवा है? इसलिए उस सेवा के बोर्ड का अध्यक्ष प्रधानमंत्री ही होना चाहिए। सच पूछिए तो आपको इसी तरह के भ्रम में डालने के लिए ही पहला वक्तव्य कुछ इस तरह का दिया है कि आपके दिमाग में प्रधानमंत्री कार्यपालिका के प्रमुख के रूप में स्थापित हो जाए। नौकरशाह के रूप में सर्वोच्च शक्तियाँ आय.ए.एस. अधिकारियों में निहित होती हैं। इसलिए दिमाग तुरन्त अपने दूसरे कथन को पहले कथन से जोड़कर इसे सही मान बैठेगा। लेकिन क्या यह सही है? अब हम बोध पर आते हैं। पहली बात तो यहकि सिविल सेवा बोर्ड का गठन इन अधिकारियों के स्थानान्तरण आदि का निर्णय लेने के लिए किया गया है। क्या आपको लगता है कि देश के प्रधानमंत्री को ऐसे कामों में संलग्न रहना चाहिए?

दूसरी बात यह कि अखिल भारतीय सेवाओं का नियंत्रण कार्मिक मंत्रालय के हाथ में रहता है। इसलिए यह संभव हो सकता है कि मंत्रालय का मंत्री ही इस बोर्ड का पदेन अध्यक्ष हो।
थोड़ी बहुत संभावना यहाँ मंत्री की भी हो सकती है। प्रधानमंत्री की तो नहीं ही है। इस प्रकार प्रशासनिक क्षेत्र की सुनी-सुनाई बातों के आधार पर पैदा हुए बोध का सहारा लेकर हम इसके उत्तर तक पहुँच सकते हैं।
क्रमषः………..

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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