सामूहिक दंड की भर्त्सना की जानी चाहिए
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हाल ही में मध्यप्रदेश के खरगौन जिले में हुए दंगों में कानून का जो रूप सामने आया है, उसने कानून की एक नई व्याख्या को जन्म दिया है। वहाँ हुए पूरे घटनाक्रम से ऐसा लग रहा है कि शासकों द्वारा जो भी किया जाता है, वही कानून है। इसके लिए न तो कानून की आवश्यकता होती है, और न ही प्रक्रिया की।
रामनवमी के जुलूस के एक दिन बाद दंगाइयों की संपत्ति के कुछ हिस्सों को इसलिए ध्वस्त किया गया, क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर इस जुलूस पर पत्थरबाजी की थी। यह कदम मुसलमानों के विरूद्ध सरकार समर्थित अभियान कहा जा सकता है, जिसमें कुछ लोगों के कथित कृत्यों के लिए सामूहिक दंड दिया गया।
इस पूरे घटनाक्रम को ‘अतिक्रमण ध्वस्त’ करने का नाम देकर मोड़ देने का प्रयत्न किया जा रहा है। मुख्यमंत्री ने चेतावनी दी है कि दंगाइयों को बख्शा नहीं जाएगा, और उनके स्वामित्व वाली संपत्ति से नुकसान की भरपाई की जाएगी। इस चेतावनी का आधार 2009 का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है, जो हिंसा होने पर कार्यक्रम के आयोजकों को दोषी मानने और उनसे मुआवजे की वसूली की अनुमति देता है।
घटनाक्रम के पीछे छिपे तथ्य –
- ऐसा लगता है कि हिंदुत्ववादी संगठन, मुस्लिमों की प्रथाओं और व्यवसायों के बहिष्कार के आहवान का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं।
- हिंसा को रंग देने में उछाल आने के साथ ही ऐसा लगने लगा है कि इन घटनाओं के पीछे बड़ा एजेंडा है। इसका उद्देश्य किसी प्रकार के प्रतिशोध को भड़काना है, ताकि उन्हें अपराधी के रूप में चित्रित किया जा सके, और उन्हें कानून के बाहर और दायरे में कड़ी सजा दी जा सके।
- ऐसी घटनाओं में सरकारी तंत्र के मौन समर्थन से देश को सांप्रदायिक तनाव के वातावरण में नहीं जाने देना चाहिए। उम्मीद की जा सकती है कि दो समुदायों के बीच होने वाली छोटी-मोटी झड़पों को सरकार की विवेकपूर्ण कार्रवाई से सुलझाया जा सकेगा।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 14 अप्रैल, 2022