समानता के संवैधानिक सिद्धांत के विरूद्ध संशोधन
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भारत की स्वतंत्रता के लगभग 75 वर्षों के इतिहास में उच्चतम न्यायालय ने भारत के संविधान में समान व्यवहार की गारंटी को मुहर लगाते हुए ढेर सारे फैसले सुनाए हैं। लेकिन हाल ही में जनहित अभियान बनाम भारत संघ के मामले में न्याय करते हुए समानता के मूल सिद्धांत को उलट दिया गया है।
मामला क्या है?
2019 में संविधान में 103वां संशोधन किया गया था। इसमें संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में बदलाव करते हुए राज्यों को यह अधिकार दिया गया कि वे सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10% आरक्षण दे सकते हैं।
साथ ही यह भी निर्देश दिए गए कि आरक्षण के इस वर्ग में पहले से ही आरक्षण प्राप्त नागरिकों के अलावा अन्य लोग आएंगे। इसका अर्थ यही है कि इस श्रेणी में अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग नहीं आते हैं।
जनहित अभियान के अनुसार
1973 से सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायधीशों की खंडपीठ ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में स्पष्ट कर दिया था कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पूर्ण नहीं है।
यदि संशोधन प्रक्रिया के बाद का संविधान अपनी मूल पहचान खो देता है, तो संशोधित कानून को अवैध माना जाएगा। अन्य शब्दों में कहें, तो संसद को संविधान के मूल ढांचे को नुकसान पहुंचाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है।
याचिकाकताओं के तर्क –
जनहित अभियान में याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि 103वें संशोधन में संविधान के बुनियादी ढांचे के उल्लंघन को तीन आधार पर देखा जाना चाहिए-
1) व्यक्तिगत आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान आरक्षण के मूल तर्क के विरूद्ध जाता है।
2) यह संशोधन भेदभावपूर्ण है, क्योंकि यह अनुच्छेद 15 और 16 के मौजूदा प्रावधानों के तहत आरक्षण के हकदार अनुसूचित जाति जनजाति और ओबीसी को इस सुविधा से बाहर करता है।
3) यह संशोधन आरक्षण की 50% सीमा का उल्लंघन करता है।
विवादास्पद बिंदु – भारत में हमेशा आरक्षण को वास्तविक समानता प्राप्त करने और क्षतिपूर्ति के उपाय के रूप में देखा गया है। यही कारण है कि इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में न्यायालय की खंडपीठ ने कहा था कि समाज में पिछड़ा वर्ग की श्रेणी की पहचान के लिए आर्थिक आधार अकेले मानदंड नहीं बनाया जा सकता है।
फिर भी बहस के दौरान यह तर्क दिया जा सकता है कि यद्यपि संविधान समानता की मांग करता है, परंतु यह संसद को इसके किसी एक सटीक संस्करण की संकल्पना में नहीं बांधता है। इसलिए आर्थिक स्थिति पर आधारित आरक्षण का सरकार का कदम मौलिक समानता को ही बढ़ावा देता है। इसी आधार पर पीठ के बहुमत ने इसे उचित वर्गीकरण, माना है।
निर्णय में क्या अनदेखा किया गया ?
अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्ग को दिया गया आरक्षण, कोई अतिरिक्त सुविधा या एहसान नहीं है, बल्कि यह समानता की गारंटी के लिए प्रावधान है। 1975 के केरल राज्य बनाम एन.एम. थॉमस मामले मे यह तथ्य स्वयंसिद्ध हो गया है। इसलिए जब तक हम केशवानंद भारती मामले को एक सैद्धांतिक अप्रासंगिकता नहीं मान लेते, तब तक 103वें संशोधन को संविधान के मूल ढांचे के अभिशाप के रूप में देखा जाना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित सुरिथ पार्थसारथी के लेख पर आधारित। 12 नवंबर, 2022