राजकोषीय घाटे में घिरी सरकार
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वर्तमान में, हमारी सरकार व्यापक राजकोषीय घाटे से घिरी हुई है। इससे मैक्रोइकॉनॉमिक तनाव उत्पन्न हो सकता है। इससे यह संकेत मिलता है कि भारत सरकार निजी क्षेत्र के अपने स्वयं के नियोजित निवेश के बाद की बचत पर अपना अधिकार जमाना चाहती है। इसका मतलब होगा अतिरिक्त मांग। इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी, और करेंट अकाउंट घाटा भी बढ़ेगा।
हालांकि, निजी निवेश अभी सुस्त है। कंपनियां निवेश करने के लिए अनिच्छुक हैं, क्योंकि चल रहे भू-राजनीतिक तनाव और उनके परिणामस्वरूप ऊर्जा, कमोडिटी की कीमतों और आपूर्ति श्रृंखला व्यवधानों के कारण वैश्विक वातावरण अनिश्चित है।
मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर है, और अब वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीतिजनक मंदी को लेकर चिंताएं भी हैं। आमतौर पर विनिर्माण क्षेत्र कैपेसिटी यूटिलाइजेशन (सीयू) के 80 फीसदी को पार कर जाने पर ही कैपेसिटी एडिशन पर ध्यान देता है। आरबीआई के सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2021-22 की चौथी तिमाही में सीयू बढ़कर 74.5% हो गया था। 2022-23 में अगर सीयू बढ़ भी जाता है, तो उच्च ब्याज लागत और मध्यवर्ती इनपुट कीमतों पर दबाव कई कंपनियों के लिए एक चुनौती है।
अधिक निवेश के लिए कंपनियों को टिकाऊ मांग भी दिखनी चाहिए। ऐसी परिस्थिति भारत सरकार को ढांचागत परियोजनाओं में पूंजीगत व्यय बढ़ाने को मजबूर करती है। निजी निवेश को बढ़ाने के लिए उच्च सार्वजनिक निवेश की आवश्यकता है। यह उन कंपनियों को प्रोत्साहित करेगा, जो पहले से बंद हैं, और उनकी बड़ी नकदी शेष है।
सरकार का व्यय और नीति विकास को बढ़ावा देने और निवेश की गति में तेजी लाने के लिए होना चाहिए। इसमें राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भी शामिल किया जाना चाहिए।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 13 जुलाई, 2022