पुलिस मुठभेड़ों को मिलता राजनीतिक प्रश्रय और न्याय प्रणाली की विफलता

Afeias
09 Aug 2024
A+ A-

To Download Click Here.

हाल ही में चेन्नई में एक बीएसपी नेता की हत्या के संदिग्ध को पुलिस हिरासत में मुठभेड़ के नाम पर मार दिया गयां। उच्चतम न्यायालय ने 2014 में इस प्रकार से की जाने वाली हत्याओं की जांच करने के तरीके पर विस्तृत दिशा निर्देश दिए थे। लेकिन ऐसी मुठभेड़ों को अंजाम देने वाली सरकार शायद ही इनका अनुसरण करती हो। ऐसी मुठभेडें आम बात हैं।

  • यूपी पुलिस ने न्यायालय को बताया है कि मार्च 2017 से 2023 तक 11,000 मुठभेड़ों में 183 कथित अपराधी मारे गए हैं।
  • लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान, बंगाल के भाजपा प्रमुख ने राज्य के गुंडों को चेतावनी दी थी कि उनकी पार्टी सत्ता में आने के बाद ‘यूपी ट्रीटमेंट’ लाएगी।
  • वामपंथी उग्रवाद वाले राज्यों और जम्मू.कश्मीर में सुरक्षा बलों ने दशकों पहले एनकाउंटर हत्याओं को सामान्य बना दिया था।

पुलिस और राजनीतिक जाल –

मुठभेड़ में हत्याएं भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलताओं को ही उजागर करती हैं। इस विफलता के पीछे अभियोजन की खराब गुणवत्ता और दोष-सिद्धि में अत्यधिक देरी बड़े कारण हैं। इसके लिए पुलिस सुधारों और फंडिंग की कमी की दुहाई दी जाती है। कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है। जब पुलिस किसी हिस्ट्रीशीटर या बलात्कारी को मारती है, तो जनता इसका जश्न भी मनाती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि तत्काल दिया गया ऐसा न्याय ही सही न्याय है। ऐसी ज्यादतियों पर सवाल उठाना पुलिस के मनोबल पर चोट माना जाता है। इस बारे में न्यायालय भी कुछ नहीं करते हैं। ऐसी हत्याओं की जांच भी तभी निष्पक्ष हो सकती है, जब जांचकर्ता राजनीति से अलग हो। ऐसी मुठभेड़ें विफल आपराधिक न्याय प्रणाली का परिणाम हैं।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 16 जुलाई, 2024