परोपकार पर पहरा

Afeias
18 Nov 2020
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Date:18-11-20

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स्वतंत्रता पश्चात देश के इतिहास में आपतकाल एक बड़ी त्रासदी थी। दूसरी त्रासदी, इस काल में बनाए गए कानूनों को खत्म न करना था। इन्ही में विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (फॉरेन काट्रिब्यूशन रेग्यूलेशन एक्ट-एफसीआरए) है, जिसे भारत सरकार ने विदेशी योगदान की स्वीकृति और विनियमन के उद्देश्य से लागू किया था। गत माह केंद्र सरकार ने इसमे संशोधन करके इसको और अधिक कठोर बना दिया है।

  • इस संशोधन का उद्देश्य विदेशी परोपकारी संस्थाओं से भारत आने वाली निधि को विनियमित करना है।
  • संशोधन में दो प्रमुख बिंदु हैं-

(1) किसी भी विदेशी दान को प्राप्त करने वाली संस्था इसे अन्य संस्थाओं को हस्तांतरित नहीं कर सकती।

(2) गैर सरकारी संस्थाओं के प्रशासनिक खर्चों की सीमा 20% तय कर दी गई है।

  • प्रभाव

(1) अनेक विदेशी दानदाताओं और उनसे जुडे़ भारतीय गैर सरकारी संगठनों में एक प्रकार की आशंका व्याप्त है। एक मुख्य संस्था से जुडे़ अनेक स्कूल, कॉलेज तथा शोध संस्थानों में काम करने वाले लोगों का भविष्य दांव पर लग गया है।

अगर यह संशोधन हरित क्रांति से पहले आया होता, तो रॉकफेलर फांउडेशन भारत में कभी भी मैक्सिको के संकर गेहूँ का प्रचलन नहीं कर पाता। इसी प्रकार कोविड और लॉकडाउन के दौरान अनेक गैरसरकारी संगठनों ने स्वास्थ और सामाजिक स्तर पर सराहनीय कार्य किए, जो अब वे नहीं कर सकेंगे।

(2) बहुत से विदेशी दानदाताओं ने इस कानून के मद्देनजर अपने फंड दूसरे देशों को भेजने का मन बना लिया है। इनमें से कई संस्थायें, भारत में बच्चों की शिक्षा और पोषण जैसी गंभीर चुनौतियों पर धन लगा रही हैं। अब देखना यह होगा कि इनके हाथ खींच लेने से उन योजनाओं की हुई हानि का देश पर क्या प्रभाव पड़ता है।

(3) इस कानून का संबंध वित्त मंत्रालय से है। परंतु इसके अंतर्गत आने वाली दानराशि का संबंध आतंकी फंडिग से बताकर गृह मंत्रालय इसे नियंत्रित कर रहा है। वित्त मंत्रालय की प्रवृत्ति अविश्वास की रहती है, जो दानदाता संस्थाओं के प्रति भी रहेगी। इससे अच्छा होता कि वित्त मंत्रालय के ही किसी विभाग में इस हेतु एक स्वतंत्र नियामक बना दिया गया होता।

जहाँ तक आतंकी फंडिग का सवाल है, अधिकांश देश फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स के माध्यम से इसे नियंत्रित करते हैं। भारत भी ऐसा करता है। इसके अलावा गैर सरकारी संगठनों के लिए प्रिवेन्शन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट, आयकर और 12 ए सर्टिफिकेशन, 80 जी सर्टिफिकेट जैसे कई नियामक पहले से ही हैं।

अब सवाल उठता है कि 1991 के आर्थिक उदारवाद के दौर में ही ऐसे कठोर कानून को समाप्त क्यों नही कर दिया गया ? इस कानून का लाभ, राजनीतिक दल अपने हितों को साधने के लिए मनचाहे तरीके से करते हैं। सन 2014 में इस कानून की आड़ में यूपी, और भाजपा दोनों दलों ने ही विदेशी दान प्राप्त किया था, जो अवैध तरीके से लिया गया था। इसलिए ये दल इस कानून को खत्म नहीं करना चाहते।

2019 में वित्त मंत्री ने एक इलैक्ट्रॉनिक फंड रेजिंग मंच शुरू करने का वादा किया था, जो पारदर्शी सोशल स्टॉक एक्सचेंज की तरह सेबी के अधीन कार्य करेगा। इस प्रकार का कदम जल्द उठाया जाना चाहिए, जिससे सरकार के अधिकतम प्रशासन का स्वप्न भी पूरा हो सकेगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित गुरचरण दास के लेख पर आधारित। 3 नवंबर, 2020