न्यूनतम समर्थन मूल्य की जद्दोजहद
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हाल ही में हरियाणा में न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर चल रहा विवाद समाप्त हो गया है। किसान चाहते थे कि राज्य सरकार पिछले वर्ष के सरकारी समर्थन मूल्य पर इस वर्ष भी सूरजमुखी की फसल खरीदे। इस विवाद से भारत के कृषि बाजार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य और फसल चुनाव पर पड़ने वाले प्रभाव का पता चलता है। कुछ बिंदु –
- भारत के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद का आपसी संबंध है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का नतीजा यह होता है कि सरकार मुख्यतः धान और गेहूं की अधिक खरीद करती है।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने के लिए सरकार कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों पर निर्भर रहती है। आयोग ने 2023 के खरीफ मौसम के लिए धान के समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की सिफारिश की है।
धान को ही चावल में बदला जाता है। खाद्य सुरक्षा और मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने में समर्थन मूल्य के महत्व को चावल के उदाहरण से समझा जा सकता है।
- इस हेतु चावल के वैश्विक व्यापार के तीन पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
यद्यपि चावल का सबसे बड़ा उत्पादक चीन है, लेकिन वह चावल का आयात भी करता है। वही भारत, दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। 2021-22 में इसकी बाजार हिस्सेदारी 37% थी। इसलिए, जब 2022 के अंत में भारत सरकार ने चावल निर्यात पर प्रतिबंध लगाया, तब वैश्विक बाजार में इसकी कीमतें तुरंत बढ़ गई थीं। अब स्थिति यह है कि घरेलू कमी के चलते शायद सरकार चावल का निर्यात न कर पाए। यहाँ आकर हम देखते हैं कि आर्थिक प्रबंधन में न्यूनतम समर्थन मूल्य की बड़ी भूमिका हो जाती है।
- सरकार जो बाजार में मूल्य निर्धारण या स्टॉक लिमिट जैसे हस्तक्षेप करती है, उससे बाजार में अवरोध पैदा होता है। इससे किसानों का फसल-चुनाव प्रभावित होता है। इसी के कारण किसान क्षेत्रीय स्थितियों के विपरीत जाकर फसल का चुनाव करते हैं। भू-जल में होने वाली कमी भी इसी का नतीजा है।
अगर सरकार बाजार में हस्तक्षेप करती रहेगी, तो समर्थन मूल्य की अनुचित मांगों का विरोध करना भी उसके लिए कठिन होगा। यही कारण है कि हरियाणा सरकार ने भी किसानों की मांग को मान लिया है। अंततः सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर विवेकपूर्ण निर्णय करने चाहिए।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 15 जून, 2023