नेताओं व पुलिस की निष्क्रियता एवं आश्वस्त भीड़
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हाल ही में हरिद्वार की एक तथाकथित धर्म-संसद ने धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार और कानून के शासन को खुलेआम चुनौती दी है। इस संसद में शामिल लोगों से भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने के लिए लड़ने, ‘मरने और मारने’ की शपथ दिलवाई गई। प्रत्येक हिंदू से, गैर-हिंदुओं की आबादी को खत्म करने के लिए, हथियार उठाने का आह्वान भी किया गया।
इस घटना को 10-15 दिन बीत चुके हैं। दुर्भाग्य है कि देश की पुलिस यूएपीए या अनलॉफुल एक्टिवीटीज प्रिवेन्शन एक्ट, 1967 को ऐसे संगीन मामलों की जगह बहुत ही तुच्छ मामलों के लिए काम में लेती है। इस देश में सरकार की आलोचना में किए गए पोस्ट पर नेताओं की गिरफ्तारी हो जाती है। परंतु ऐसे अपमानजनक बयान पर न तो प्रतिक्रिया और न ही गिरफ्तारी होती है।
इस पर सरकार और जनता की प्रतिक्रिया होनी चाहिए कि यह एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश है। यहाँ के नेता बहुसंख्यक का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरी बात यह कि इस घटना को देश में दर्जनों परेशान करने वाली घटनाओं से जोड़कर देखा जाना चाहिए, और उस पर तीखी प्रतिक्रिया की जानी चाहिए। हाल ही में गुडगांव में शुक्रवार की नमाज में रुकावट डाला जाना, असम से कर्नाटक तक क्रिसमस के उत्सव को बाधित करना, ‘साईं’ शब्द लिखी एक मुस्लिम की दुकान को बंद करना आदि अधिकांश घटनाओं में एक समान्य बात पुलिस और नेताओं द्वारा इन समूहों का सामना करने की अनिच्छा है।
इन सभी बातों के भयंकर परिणाम के रूप में इस प्रकार की गतिविधियों में संलिप्त भीड़ समझने लगती है कि धर्म की आड़ में किए गए गैर कानूनी कार्यों से वह पूर्णतः सुरक्षित रह सकती है। देश के नेताओं से उम्मीद की जा सकती है कि वे ऐसे मामलों पर अपनी निष्क्रियता की गंभीरता को समझें। यह भी समझें कि कैसे छोटी-छोटी सांप्रदायिक घटनाओं की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। समय रहते इन पर कार्यवाही की जानी चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 28 दिसम्बर, 2021