नैतिकता, संसदीय आचरण और भारतीय सांसद
To Download Click Here.
सांसदों की छवि अत्यंत संवेदनशील होती है। हाल ही में पश्चिम बंगाल की ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा के एक आचरण ने इस विषय को सार्वजनिक वाद-विवाद का मुद्दा बना दिया है। मोइत्रा पर आरोप है कि उन्होंने संसद में एक प्रश्न पूछने के एवज में किसी व्यापारी से धनराशि ली है। उनके इस मामले को संसद की आचार समिति को सौंप दिया गया। इस प्रकार के मामलों से संबंधित प्रावधान –
- यदि कोई सांसद संसद में प्रश्न रखने के लिए रिश्वत लेता है, तो वह विशेषाधिकार हनन और सदन की अवमानना का दोषी होता है।
- ऐसी शिकायतों को विशेषाधिकार समिति को भेजा जाता है।
- यह समिति उचित जांच के बाद अपना प्रस्ताव प्रस्तुत करती है। एक रिपोर्ट में निष्कर्षों के साथ-साथ संबंधित सांसद के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश भी करती है।
- दोष साबित होने पर सांसद को निष्कासित भी किया जा सकता है।
संसद में पहले भी ऐसे उदाहरण रहे हैं, जब सांसदों के संसदीय कार्यों के लिए पैसे लेने की शिकायतों को विशेषाधिकार समिति या सदन द्वारा नियुक्त विशेष समिति के पास भेजा गया था।
आचार समिति या एथिक्स कमेटी और विशेषाधिकार या विशेष समिति –
- यह समिति सन् 2000 में बनाई गई थी।
- इसे संदर्भित सांसदों के अनैतिक आचरण से संबंधित हर शिकायत की जांच करने और कार्रवाई करने के लिए बनाया गया था।
- इसका काम सांसदों के लिए आचार संहिता तैयार करना भी है।
- समिति का दिलचस्प पहलू यह है कि ‘अनैतिक आचरण’ शब्द को परिभाषित ही नहीं किया गया है।
- आचरण की नैतिकता-अनैतिकता के निर्णय को पूरी तरह से समिति पर छोड़ दिया गया है।
- गंभीर कदाचार से जुड़े अधिक गंभीर मामलों को विशेषाधिकार या विशेष समितियों को सौंपा जाता है।
मोइत्रा का मामला -> एक पक्ष कहता है कि यह अवैध परितोषण (ग्रेटीफिकेशन) स्वीकार करने से जुड़ा है। अतः यह विशेषाधिकार हनन का मामला है। इसे एथिक्स कमेटी को नहीं दिया जा सकता। दूसरे, सिविल-सेवक का रिश्वत लेने का मामला आपराधिक मामला होता है। इसकी जाँच आमतौर पर सरकार एजेंसी के आपराधिक जाँचकर्ता को देती है। जबकि संसदीय समितियाँ आपराधिक जाँच से नहीं निपटती हैं। वे साक्ष्यों के आधार पर तय करती हैं कि सांसद का आचरण विशेषाधिकार का उल्लंघन है या अवमानना है, और तदनुसार उन्हें दण्डित करती है। सदन का दण्ड, सांसद की संसदीय कार्यप्रणाली के संबंध में ही दिया जाता है, अन्यथा उसे आपराधिक कानून के अनुसार दण्डित किया जाता है। ऐसे ही एक मामले में लोकसभा के 10 सांसदों का मामला भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत चल रहा है।
संसद में प्रश्न पूछने के एवज में धन –
- यह मामला न्यायिक जाँच क्षेत्र में नहीं आता है।
- संसदीय समिति में कानूनी विशेषज्ञ नहीं होते हैं। लेकिन संसद के पास कार्यपालिका की जांच करने की शक्ति होती है। साथ ही अपने सदस्यों को दण्डित करने की भी शक्ति होती है।
- अतः संसद के जांच के तरीके न्यायापालिका से भिन्न हो सकते हैं। संसदीय समिति संसद के अपने कानूनों के अनुसार काम करती है, जिसमें लिखित दस्तावेजों की जांच, प्रासंगिक गवाहों से पूछताछ आदि के बाद निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है।
- अंतिम विश्लेषण में समिति व्यावहारिक बुद्धि के आधार पर एक दृष्टिकोण अपनाती है।
- इस प्रकार की जाँच में साक्ष्य अधिनियम या एविडेन्स एक्ट के तहत आने वाले नियम लागू नहीं होते हैं। किसी व्यक्ति या दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत साक्ष्य की प्रासंगिकता सदन के अध्यक्ष ही निर्धारित कर लेते हैं।
यहाँ इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि लोकसभा ने ऑनलाइन प्रश्न पूछे जाने के विनियमित करने के लिए कोई नियम नहीं बनाए हैं। समय के अभाव में सांसद अपने सहायकों से अपना आईडी और पासवर्ड शेयर करके काम करवाते हैं। संसदीय कार्य के लिए उनको अपने स्रोत का खुलासा करने की भी कोई बाध्यता नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 105 उन्हें सदन में कुछ भी कहने की आजादी देता है। इस अधिकार को संसद में प्रश्न पूछने, विधेयक तैयार करने या रखे जाने वाले प्रस्तावों के लिए जानकारी के किसी भी स्रोत का उपयोग करने तक विस्तारित माना जाना चाहिए। इसलिए किसी सांसद की जानकारी के स्रोतों की जांच को कानूनी प्रतिबंध के दायरे में नहीं लाया जा सकता है। संसद के पास स्वयं ही अपने सदस्यों को अनुशासित करने की शक्ति है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित पी.डी.टी. आचार्य के लेख पर आधारित। 01 नवंबर, 2023