संसदीय प्रणाली का सही विकल्प क्या हो ?

Afeias
18 Aug 2020
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Date:18-08-20

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हाल ही में कर्नाटक , मध्यप्रदेश और राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य में जिस प्रकार विधायकों की खरीद फरोख्त का खेल चला है , वह राजनैतिक भारत के इतिहास में शर्मनाक है। इसका कारण ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था की भारत में असफलता है। हमारी संसदीय व्यवस्था ने ऐसे राजनीतिज्ञ तैयार किए है , जो विधि निर्माण का किसी तरह से ज्ञान नहीं रखते। ऐसे नेता केवल कार्यात्मक शक्ति के मालिक बनने के लिए राजनीति में चले आते हैं।

बहुलवादी लोकतंत्र ही भारत की शक्ति है , जो अपनी कार्यप्रणाली से वर्तमान में हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है। आज भारत में दलगत राजनीति की पवित्रता नहीं रही है। लोग धर्म , जाति , लिंग के नाम पर मतदान करते हैं। उम्मीद्वारों के व्यक्तिगत चरित्र और क्षमता को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती है। हाँ , अगर व्यक्तिगत उम्मीद्वार से आगे सरकार बनने की संभावना हो , तो लोग पार्टी देखकर वोट दे देते है। इसका अर्थ है कि मतदान एक कार्यपालिका के निर्माण के लिए किया जा रहा है , न कि विधान बनाने के लिहाज से।

कार्यपालिका की शक्ति हथियाने के उद्देश्य से जब कोई उम्मीदवार चुनाव जीतता है , तो निम्नलिखित चार समस्याएं उत्पन्न होती हैं –

  1. कार्यपालिका में सक्षम व्यक्तियों के लिए स्थान सीमित हो जाता है। प्रधानमंत्री अपनी इच्छा से कैबीनेट नहीं चुन सकते। उन्हें अनेक राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलना होता है। ( प्रधानमंत्री , राज्यसभा के माध्यम से विशेषज्ञों को शामिल कर सकते हैं)।
  1. इससे दल-बदल और खरीद-फरोख्त वाले मामलें आम हो जाते हैं। सन 1985 का दलबदल विरोधी कानून विफल हो चुका है।
  1. विधि-निर्माण में बाधा आती है। अधिकांश कानून कार्यपालिका (उसके अधीन नौकरशाही) बनाती है , जिसे मामूली विचार-विमर्श के बाद पारित कर दिया जाता है। व्हिप जारी करके नेताओं पर पार्टी का दबाव बनाया जाता है , और विधेयक पारित कराए जाते हैं।
  1. विपक्षी दलों के लिए संसद या विधानसभा कोई पवित्र और विचारशील संस्था न होकर , उनकी शक्ति के इस्तेमाल में व्यवधान पैदा करने वाली संस्था रह जाती है।

हमें एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहिए , जो निर्णायक कदम उठा सके। उसके नेता सत्ता में बने रहने के बजायए एक सुचारू प्रशासन के उद्देश्य को लेकर चलें।

  • लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अन्य रूप अध्यक्षीय प्रणाली हो सकता है।
  • इसमें राजधानी व प्रत्येक राज्य के लिए एक प्रमुख चयनित किया जा सकता है। यह दलों के दबाव और कार्यकाल की अनिश्चितता से मुक्त हो सकता है।
  • मतदाता , अपनी पसंद के उम्मीदवारों का चयन करें।
  • एक निश्चित समयावधि में जनता को उसकी क्षमता और प्रदर्शन का सही ज्ञान हो जाएगा। इसमें उसकी राजनैतिक क्षमता और अपने दल की सरकार को बनाए रखने की योग्यता का नहीं , बल्कि जन-सेवा का सही परीक्षण हो सकेगा।
  • यही व्यवस्था नगरों और पंचायतों के लिए भी लागू की जा सकती है।

व्यवस्था से आशंकाएं

  • उदारवादी लोकतंत्र , हमेशा से इस व्यवस्था को तानाशाही का खतरा मानता रहा है।
  • एक ऐसे राष्ट्राध्यक्ष की स्वीकृति देना , जिसपर संसदीय हार और सार्वजनिक दृष्टिकोण का दबाव न हो , तो वह अड़ियल हो सकता है।

इस व्यवस्था से एक लाभ जरूर हो सकता है कि चुनी हुई कार्यकारिणी पर अध्यक्ष द्वारा हटाए जाने का दबाव नहीं होगा। वे अपनी विचारशक्ति से काम कर सकेंगे। अपनी सरकार को बचाने के लिए खरीद-फरोख्त जैसा कोई परिदृश्य भी नहीं रह जाएगा।

भारतीय लोकतंत्र का एकमात्र उद्देश्य देश की प्रगति होना चाहिए , जो हमें वर्तमान व्यवस्था तो नहीं दे सकी। शायद अध्यक्षीय प्रणाली से प्राप्त हो सकता है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित शशि थरूर के लेख पर आधारित। 25 जुलाई , 2020

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