मानवाधिकार तो सार्वभौमिक प्रसंग है
Date:23-04-21 To Download Click Here.
वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन ने अंतराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इस पर अतंरराष्ट्रीय हस्तियों के कुछ वक्तव्यों का सरकार ने यह कहकर कड़ा विरोध किया है कि यह भारत का आंतरिक मामला है, और इसे लोकतंत्र या मानवाधिकारों से जोड़कर तूल न दिया जाए। इसके तुरंत बाद ही इस आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय मंच प्रदान करने के लिहाज से तकनीकी सहायता पहुँचाने वाले कुछ युवाओं (जिनमें दिशा रवि भी एक रहीं) की गिरफ्तारी ने सरकार के चेहरे से पर्दा हटा दिया। सरकार के ये तेवर सोशल मीडिया कंपनियों को कुछ विरोधी आवाजों के अकाउंट ब्लॉक करने के निर्देश देने में भी देखे गए थे। ऐसे लोकतंत्र का क्या अर्थ है, जो हमारे सार्वभौमिक मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकता ?
सम्मानित तरीके से रहना, गरिमा का उल्लंघन नहीं किया जाना और सुरक्षा की भावना का होना कुछ ऐसे अधिकार हैं, जो प्रत्येक मानव को चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह सीरिया का वासी है या म्यांमार का, पाकिस्तान का हिंदू है या मैक्सिको की सीमा का शरणार्थी। सच कहा जाए तो किसी सरकार के पास एक सीमा तक ही प्रतिरक्षा है, क्योंकि वह अपने अधिकार क्षेत्र में मानवाधिकारों का उल्लंघन करती ही है। किसान आंदोलन पर वैश्विक समर्थन के संदर्भ में प्रधानमंत्री के विदेशी विनाशकारी विचारधारा के वक्तव्य को सीमित प्रतिरक्षा के अंदर ही गिना जाना चाहिए। किसी भी देश के अपने लोगों के प्रति रवैये को ‘आंतरिक मामला’ कहकर बचाव की दलील पेश करना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता।
राष्ट्र और अधिकार –
भारत ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार का विरोध करने के लिए दुनिया को एक साथ खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और यह जंग 1962 तक चलती रही। 1950 के दशक से ही भारत रंगभेद के विरूद्ध तब तक डटा रहा, जब तक संयुक्त राष्ट्र में रंग भेद के खिलाफ एक समिति का गठन नहीं कर दिया गया और दुनिया ने इस भेदभाव को मिटाने का संकल्प नहीं ले लिया। भारत के प्रयासों से जागरूकता और सक्रियता बनी रही, जिसके चलते 1963 के रिवोनिया मामले में मंडेला को मृत्युदण्ड से बचा लिया गया।
गत शताब्दी के युद्धोपरांत, विश्व में मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा ने युद्ध के बाद की दुनिया के लिए शर्तें रखीं, जिसमें लोगों के अधिकार और स्वतंत्रता को प्रधानता दी गई। प्रथम मानवाधिकार आयोग का भारत सदस्य था। भारत ने ही ‘इंटरनेशनल बिल ऑफ राइट्स’ का मसौदा तैयार किया था। मानवाधिकारों पर सार्वजनिक घोषणा पत्र का मसौदा तैयार होने के बाद 1948 में इसे जनरल एसेंबली द्वारा अपनाया गया था।
1945 में संयुक्त राष्ट्र के चार्टर को भी विस्तृत और प्रभावशाली बनाने में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने पूरी कर्मठता दिखाई थी। महात्मा गांधी ने इस पर प्रेस वक्तव्य भी दिया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्षा विजय लक्ष्मी पंडित ने अपनी एकवर्षीय यात्रा में गांधी और नेहरू की सार्वभौमिकता और अधिकारों की अविभाज्य प्रकृति के विचारों की जगह-जगह चर्चा की थी।
केंद्र सरकार के बचाव के प्रयास –
अधिकारों, समानता और असंतोष की अभिव्यक्ति के लिए उठने वाली आवाजों को दबाने के परिणामस्वरूप दिखने वाली अंतरराष्ट्रीय चिंता से बचाव के लिए ‘आत्मनिर्भर भारत’ और संप्रभुता का वास्ता देने वाली केंद्र सरकार वास्तव में देश को नीचे ले जा रही है। श्रीलंका के दौरे पर गए भारतीय विदेश मंत्री वहां रहने वाले तमिलों के जीवन की रक्षा के लिए और अधिक करने की आवश्यकता बताते हैं। वहीं 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम में तीन देशों के कुछ सता, नागरिकों को भारत में शरण देने की पेशकश की जाती है। सार्वभौमिक मानव अधिकारों के नाम पर ही भारत ने बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में अहम् भूमिका निभाई थी। इसी आधार पर दलाई लामा को भारत में शरण दी गई थी।
वास्तविकता की समस्या –
प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने ही स्वयं दो दर्जन विदेशी दूतों को कश्मीर का दौरा इसलिए कराया, जिससे वे कश्मीर में मानवाधिकार पर सरकार के पक्ष में राय दे सकें। इसका अर्थ है कि सरकार विदेशी अनुमोदन प्राप्त करना चाहती है। कई अवसरों पर प्रधानमंत्री अपनी यात्राओं के दौरान विदेशी भूमि में हस्तियों के साथ दिखाई दिए हैं, जैसे उनका अनुमोदन प्राप्त करना चाहते हो। अनुमोदन की लालसा किसी भी प्रचार-प्रसार वाले राजनेता के लिए स्वाभाविक है। लेकिन केवल प्रशंसा प्राप्त करने के लिए दुनिया से सरोकार और असंतोष की अंतरराष्ट्रीय आवाज पर ‘आंतरिक मामले’ का रवैया, लोकतंत्र को रास नहीं आ सकता।
भारत के लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में वैश्विक चिंताओं को सोशल मीडिया अकाउंट बंद करके या ‘एम्पलीफायरों’ को धमकाने से ही मात्र नहीं दबाया जा सकता। भारत की समस्या छवि से जुड़ी हुई नहीं है, बल्कि यथार्थता से जुड़ी हुई है। अगर मोदी सरकार अपनी छवि सुधारना चाहती है, तो वास्तविकता को बदलना और देश में श्रेष्ठ लोकतांत्रिक प्रथाओं का पालन करना ही एकमात्र समाधान है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित सीमा चिश्ती के लेख पर आधारित 24 फरवरी, 2021