मानवाधिकार आयोग पर एक चर्चा

Afeias
02 Apr 2020
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Date:02-04-20

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हमारा प्रजातंत्र तीन शाखाओं में विभक्त है – विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका। ये तीनों ही एक-दूसरे पर नियंत्रण और संतुलन रखते हैं। बढ़ती जनसंख्या के साथ प्रशासन की जटिलताओं ने ऐसे स्वतंत्र निकायों की मांग खडी कर दी है, जो महत्वपूर्ण क्षेत्रों के कार्यों को सुचारू रूप से संपन्न कर सकें। इनमें से चुनाव आयोग और महालेखा नियंत्रक परीक्षक संवैधानिक संस्थाएं हैं। सूचना आयोग, मानवाधिकार आयोग जैसी कुछ संस्थाएं ऐसी हैं, जिन्हें कानून के रास्ते स्थापित किया गया है।

इन संस्थाओं में से मानवाधिकार आयोग की स्थापना 1993 में संसद द्वारा कानून बनाकर की गई थी। तब से लेकर आज तक इसके दंतविहीन अस्तित्व पर अनेक प्रश्न उठते रहे हैं। स्थितियां कुछ ऐसी बन गई है कि इनकी भूमिका मात्र सलाहकार की रह गई है। उस पर भी सरकार जब चाहे उसके परामर्श की अवज्ञा कर सकती है।

मद्रास उच्च न्यायालय की भूमिका

इस संदर्भ में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक पीठ की स्थापना की है, जो मानवाधिकार आयोग द्वारा किसी मामले में दी गई सिफारिशों पर राज्य या केंद्र सरकार की बाध्यता पर विचार करेगी।

ज्ञातव्य हो कि मानवाधिकार अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत उसे यह शक्ति दी गई है कि इस प्रावधान में पीडित व्यक्ति को राज्य के अधिकारियों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही करने के लिए मुआवजा दिया जाए। मद्रास उच्च न्यायालय आयोग को दिए गए ‘रिकमेंड‘ या ‘सिफारिश‘ के अधिकार की व्याख्या करना चाहता है।

संवैधानिक प्रतिबद्धता

  • मानवाधिकार अधिनियम को मानवाधिकारों की सुरक्षा और प्रोत्साहन के लिए लाया गया था। इस हेतु एक संस्थागत ढांचे का गठन किया गया।
  • आयोग एक ऐसा निकाय है, जो सरकार और व्यक्ति के मध्य खडा है। इसका काम मानवाधिकारों की सुरक्षा की संवैधानिक प्रतिबद्धता की स्थापना करना है। यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर आयोग की सिफारिशों को मानना या न मानना सरकार की इच्छा पर ही छोड़ दिया जाए, तो आयोग की संवैधानिक भूमिका क्या रह जाएगी ?
  • पिछले कुछ मामलों में, न्यायालयों ने अस्पष्टता होने पर निकायों के संवैधानिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए निर्णय दिया है। उच्चतम न्यायालय ने भी मानवाधिकार आयोग जैसे स्वायत्त निकाय द्वारा किए जाने वाले संवैधानिक कार्यों को महत्वपूर्ण माना है। न्यायालय ने सीबीआई जैसी संस्था की स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश दिए हैं।
  • मानवाधिकार आयोग के पास सिविल कोर्ट के अधिकार हैं। इसके समक्ष होने वाली कार्यवाही न्यायिक मानी जाती है। इसके चलते इसके परामर्श को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, और सरकार को इसे मानने के लिए बाध्य होना चाहिए।

हाल ही में कुछ विदेशी ट्रिब्यूनल का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने आयोग की सम्मति को बाध्यता मानने का तर्क दिया था।

कुल मिलाकर, आयोग द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका और एक प्रजातंत्र में औचित्य की संस्कृति के लिए जिम्मेदार सरकार के लिए आयोग की सिफारिशों को मानने की अनिवार्यता होनी चाहिए।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित गौतम भाटिया के लेख पर आधारित। 20 मार्च, 2020

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