मजदूर संघों की चुप्पी
Date:12-05-21 To Download Click Here.
महामारी के इस भयंकर दौर में अनेक राहत योजनाओं के साथ श्रम सुधारों की दिशा में कदम उठाना, एक सकारात्मक कार्य होगा। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनॉमी ने महामारी के पूरे एक वर्ष में समाप्त हुई वेतनभोगी नौकरियों की संख्या को एक करोड़ बताया है। इस पर सरकार की चुप्पी हैरान करने वाली है। यह निष्क्रियता उस समय है, जब केरल और पश्चिम बंगाल जैसे श्रम प्रधान राज्यों में श्रमिकों द्वारा किया जाने वाला विरोध चरम पर रह चुका है। तमिलनाडु ने पिछले 3 वर्षों में श्रमिकों की 51 हड़तालें देखी हैं।
सवाल यह है कि श्रमिकों के वेतन, औद्योगिक संबंधों, व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा पर नए श्रम कोडों ने क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का ध्यान अभी तक क्यों नहीं खींचा है ?
संविधान की समवर्ती सूची में श्रम कानूनों को रखा गया है। केंद्र और राज्य दोनों को ही इस पर कानून बनाने का अधिकार है। राष्ट्रीय सेवक संघ प्रेरित भारतीय मजदूर संघ जैसे अनेक मजदूर संघों ने नए लेबर कोड या श्रम संहिता के अनेक प्रावधानों का पहले ही विरोध करना शुरू कर दिया है। फिलहाल, इनके स्थगन से मजदूर संघों को कुछ राहत मिली है। लेकिन अगर सरकार उन प्रावधानों को फिर से लागू करने का प्रयत्न करती है, तो मुश्किल बढ़ सकती है।
वास्तविकता यह है कि भारत श्रम बल का मात्र 10% ही संगठित क्षेत्र में है, बाकी का अधिकांश भाग अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र में है। अगर ये मजदूर संघ, असंगठित मजदूरों को आकर्षित करने का प्रयत्न भी करते हैं, तो इनमें पहले जैसी ताकत नहीं है।
भारत की अर्थव्यवस्था श्रम के बजाय सेवा आधारित होती जा रही है। अतः मजदूर संघों में अब वह ताकत नहीं रही है। आज हमारे सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र का योगदान 60% है। जबकि श्रम का संबंध विनिर्माण से है, और इसका योगदान मात्र 18-19% है। विनिर्माण में ऑटोमेशन का दौर बढ़ने से अब कुशल श्रम की आवश्यकता पड़ने लगी है। यह भी अधिकतर तकनीक से जुड़े होते हैं। इस प्रकार के कर्मचारी यूनियनबाजी में भी नहीं पड़ना चाहते। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में ये मजदूर संघ शांत ही हो जाएंगे।
यही कारण है कि अब सरकारें और विपक्षी राजनीतिक दल अपने चुनाव में श्रम सुधारों को मुद्दा नहीं बना रहे हैं। अब भारत के पास श्रम क्षेत्र को लेकर लचीलापन आ गया है। ऐसा लगता है कि इस लचीलेपन के साथ भी हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना कर सकते हैं। साथ ही वास्तविक मजदूर संघों ( जिनका राजनीतिक आधार न हो) के लिए श्रम सुधार भी कर सकते हैं।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित मैथिली मुस्नुरमथ के लेख पर आधारित। 4 मई, 2021