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लोकतांत्रिक बर्बरता की समर्थक बनी न्यायिक शक्ति
Date:03-12-20 To Download Click Here.
इसका सीधा-सीधा प्रभाव, नागरिक स्वतंत्रता और असंतुष्टों की रक्षा में कमी और सरकार की शक्ति के लिए असामान्य सम्मान के रूप में पड़ता है। इस संस्करण में न्यायालय भी एक डरे हुए सम्राट की तरह व्यवहार करता है। न्यायालय की महिमा को उसकी विश्वसनीयता से नहीं, बल्कि अवमानना की शक्ति से सुरक्षित रखा जाता है। सरकार जब अपने ही नागरिकों से दुश्मनों की तरह का व्यवहार करने लगती है, तब बर्बरता का गहरा होना समझ में आने लगता है। आज के युग में राजनीति का अर्थ सबके लिए समान न्याय उपलब्ध कराना नहीं रह गया है। अब इसका अर्थ राजनीति को ऐसे खेल में तब्दील करना हो गया है, जिसमें पीड़ित और उत्पीडक दोनों हैं, और जीत अपने पक्ष की हो, यह सुनिश्चित कर लिया जाता है।
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कभी भी पूर्ण नहीं रहा है। पहले भी उसने काली घटाएं देखी हैं। परंतु अब वह कुछ अर्थों में बर्बरता की तरफ बढ़ता जा रहा है। यह केवल किसी एक व्यक्तिगत न्यायाधीश या किसी व्यक्तिगत मामले की बात नहीं है। यह उसकी व्यवस्थात्मक प्रक्रिया में जड़ जमा चुकी है। केवल भारत ही नहीं, बल्कि पोलैण्ड, तुर्की और हंगरी में भी यही रवैया देखा जा रहा है। इस प्रकार की व्यवस्था में सभी न्यायाधीश शामिल नहीं होते हैं। अपने स्तर पर वे भरसक प्रतिरोध भी करते हैं। कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जब स्वतंत्रता के नाम पर आदर्श बघारे जाते हैं। कभी किसी वादी को सचमुच में न्याय दे दिया जाता है। लेकिन रोजमर्रा में तो सड़ी-गली व्यवस्था ही चलती रहती है।
न्यायिक बर्बरता के क्या लक्षण दिखाई देते हैं ? न्यायालय ने लोकतंत्र की आत्मा की संस्थात्मक अखंडता बनाए रखने से संबंधित इलैक्टोरल बांड जैसे मामले की समय से सुनवाई नहीं की। उच्चतम और अनेक उच्च न्यायालयों ने जमानत के मनमाने तरीके अपना लिए हैं। वैसे तो, भारत में एक विचाराधीन कैदी जानता है कि न्याय मिलना या न मिलना किस्मत का खेल है, लेकिन यह अब भेदभाव से भी भरता जा रहा है। सुधा भारद्वाज जैसी देशभक्त और आनंद तेल्तुम्बड़े जैसे विचारक की जमानत रद्द कर दी गई। सीएए का विरोध करने वाले अनेक युवा-बंदियों का भाग्य अनिश्चित है। 80 वर्ष के एक सामाजिक कार्यकर्ता की एक स्ट्रा की मांग को ठुकरा दिया गया, जबकि उन्हें पार्किंसन रोग है। इससे अधिक निर्दयता की बात और क्या हो सकती है। हजारों कश्मीरियों को हेबीयस कार्पस के बिना ही हिरासत में ले लिया गया।
ये सब केवल न्यायालय की संस्थागत विफलता या अक्षमता के कुछ उदाहरण नहीं है, बल्कि ये उस राजनीति का परिणाम हैं, जो विरोध, असंतोष और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सरकार या राष्ट्र के विद्रोह के चश्में से देखती है। ऐसे लोगों को कानून भी समान भाव से नहीं देखता है। इन्हें बिना किसी तर्कसंगतता के विद्रोही मान लिया जाता है। सरकार के सभी स्तरों पर यही व्यवस्था चलाई जा रही है।
नागरिक स्वतंत्रता में असमानता शुरू होने से देश की वैचारिक नींव धीरे-धीरे खत्म होती जाएगी। अब ‘लव जिहाद’ पर कानून बनाए जाने पर विचार किया जा रहा है। यह सांप्रदायिक रूप से देश को विभाजित करने की दिशा में कुटिल चाल है। देखना यह है कि स्वतंत्रता के इस हमले को वैध बनाने में न्यायपालिका कैसी भूमिका निभाती है।
हम उस चरण से आगे निकल गए हैं, जहां संस्थागत सुधार की नीतिगत भाषा में उच्चतम न्यायालय की दुर्बलताओं को पकड़ा जा सके। जो हो रहा है, वह लोकतांत्रिक बर्बरता की भाषा को न्यायिक जामा पहनाने जैसा है।
अर्णव गोस्वामी को जमानत देने के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सही किया। उसने पत्रकारों की गिरफ्तारी के संबंध में उत्तरप्रदेश सरकार को नोटिस भी दिया। परंतु न्यायधीश बोबड़े ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के उपयोग को हतोत्साहित करती है। यह वह अनुच्छेद है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। इसे केवल आपातकाल की स्थिति में निलंबित किया जा सकता है। इस अनुच्छेद के उपयोग को हतोत्साहित करने का अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि औपचारिक रूप से तो आपातकाल की घोषणा नहीं की गई है, परंतु आवश्यकता होने पर हम उसके अनुरूप एक्शन ले सकते हैं।
इन सबके विरूद्ध संघर्ष आसान नहीं होने वाला है। लोकतांत्रिक बर्बरता में अब हर मुद्दे पर सार्वजनिक परिप्रेक्ष्य में नहीं, बल्कि पक्षपातपूर्ण संघर्ष के चश्मे से सोचा जाता है। इस रोग से अब न्यायपालिका भी संक्रमित हो चुकी है। विडंबना यह है कि हम न्यायपालिका में अपनी छोटी-छोटी विजयों से उसके संवैधानिक सिद्धांतों के उल्लंघन को वैधता प्रदान कर देते हैं। यहाँ विरोध में कुछ अवाजे उठती जरूर हैं, लेकिन ये अभी पेशेवर स्तर तक अपने को खड़ा नहीं कर पायी हैं। वरिष्ठ वकीलों और न्यायाधीशों की पीढ़ी न्यायालयों की लचर महिमा और न्यायिक बर्बरता के साथ अभी भी सहजता से चली जा रही है। ऐसा महिमा-खंडन थोड़ी अतिशयोक्ति लग सकता है, परंतु जब आप न्यायपालिका के रेंगते हुए स्वरूप से दो चार होते हैं, तब समझ पाते हैं कि आम नागरिकों के लिए अनुग्रह कोई विकल्प नहीं है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख पर आधारित। 18 नवम्बर, 2020