लक्ष्य से भटकता मानवाधिकार आयोग

Afeias
11 Nov 2021
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Date:11-11-21

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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एक ऐसी संस्था है, जिसका गठन 1993 में जीवन की स्वतंत्रता, समानता एवं गरिमा से जुड़े अधिकारों की सुरक्षा की जांच-परख हेतु किया गया था। इसका आधार संयुक्त राष्ट्र महासभा के पेरिस सिद्धांत हैं। 1993 के इस कानून को 2006 में संशोधित किया गया था।

राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोगों की भूमिका बहुत स्पष्ट रखा गया है। उनका काम मानवाधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में मामले की जांच करना और इस संबंध में कानूनी कार्यवाही के लिए प्रयत्न करना है। लोकतंत्र में सत्ता के काम पर नियामक जाँच की जाती है, जिसमें एक संस्था दूसरे की जवाबदेही सुनिश्चित करती है।

हाल ही में आयोग के अध्यक्ष ने संगठन के मुख्य कार्य की तुलना में, सरकार के द्वारा किए गए कार्यों का अधिक बखान किया है। उन्होंने ‘अंतरराष्ट्रीय ताकतों’ के इशारे पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के झूठे आरोप लगाए जाने के ‘नए मानदंड’ की निंदा की, और जम्मू-कश्मीर में शांति के ‘नए युग’ की शुरुआत करने के लिए भारत सरकार की प्रशंसा की।

मानवाधिकार आयोग अध्यक्ष की इस प्रशंसा के कुछ निष्कर्ष

  • मानवाधिकार आयोग एक अत्यंत महत्वपूर्ण निकाय है, जिसके अपने काम बहुत अहम् होते हैं।
  • सरकार के विरुद्ध रचे जाने वाले अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्रों की चिंता व जांच के लिए अन्य शक्तिशाली अंग मौजूद हैं। इसे सुलझाने का काम मानवाधिकार आयोग का नहीं है।
  • मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र घरेलू या राष्ट्रीय स्तर का है।
  • जम्मू-कश्मीर और उसकी शांति से जुड़ा निर्णय मीडिया, मतदाताओं एवं अन्य हितधारकों को करना है। इसे मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रेषित नहीं किया जाना चाहिए।
  • आयोग के अध्यक्ष का अपने भाषण में मानवाधिकार आयोग के कार्य के रूप में नागरिकों को झूठे मामलों और मुठभेड़ों से सुरक्षा के साथ तत्काल न्याय की आवश्यकता बताना, उचित नहीं कहा जा सकता।

इन सबके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में मानवाधिकार आयोग का अस्तित्व निरर्थक हो गया है। उच्च्तम न्यायालय ने भी इसे ‘दंतहीन बाघ या टूथलैस टाइगर’ कहा था। इस संदर्भ में एक तर्क दिया जा सकता है कि भारत में मानवाधिकार उल्लंघन आम हो चले हैं, और आयोग की अपनी सीमाएं हैं। ऐसे में आयोग कर ही क्या सकता है? इसका समाधान यही है कि सरकार कुछ शक्तियों को बढ़ाकर, इसकी स्वतंत्रता की रक्षा करे। तभी इसके होने की सार्थकता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 14 अक्टूबर, 2021