हमारे दुखों का योग

Afeias
27 May 2021
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Date:27-05-21

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इन दिनों फेसबुक, शोक संदेश के बुलेटिन बोर्ड जैसा हो गया है। अपने आत्मीयों के बिछुडने के दुख ने शब्दों को पुष्पाजंलि का रूप दे दिया है। साझा करना भी शोक जताने का एक तरीका होता है। इन पर आने वाले कई जवाब अविश्वास से भरे होते हैं।

रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी, सहकर्मी, वायरस के मनमाने प्रहार ने किसी को भी नहीं बख्शा है। कई परिवारों को तो दोहरा झटका लगा है। श्रेष्ठ लेखक, शिक्षाविद्, अभिनेता, संगीतकार और कई अन्य; जिन्होंने दशकों तक हमारे जीवन को समृद्ध किया है, आज बिना खबर बने ही चले गए हैं। बौद्धिक और सांस्कृतिक पूंजी की यह हानि अवर्णनीय है। दुखद पहलू यह है कि यह दिन-प्रतिदिन जारी है। समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही है।

अपनों को गंवाने की आवृत्ति और अप्रत्याशित हानि ने स्थितियों से तालमेल बिठाना, कठिन और असहनीय कर दिया है। क्या आप याद कर सकते हैं कि हाल ही में आपने कितनी बार अपने फोन पर ‘हार्दिक संवेदना’ टाइप किया है ? कभी-कभी तो यह एक रिफ्लेक्स एक्शन की तरह काम कर रहा है, जिसमें भावनाओं की तह तक पहुँचने से पहले ही उद्गार फूट रहे हैं। आज हमारा मस्तिष्क और मन, भय और आशंकाओं से भरा पड़ा है। कोविड-19 एक व्यथित करने वाला सोपान है, जिसने हमारे दिमाग में घर बना लिया है।

कई लोगों के लिए दुख और चिंता को संभालना भारी है। अस्पताल में ऑक्सीजन के अभाव में हांफते एक व्यक्ति की छवि को आप कैसे याद नहीं रखेंगे ? आप अपने किसी स्वजन के उचित दाह संस्कार न कर पाने की ग्लानि से कैसे बच सकते हैं ? आप अपने उस मित्र को कैसे सांत्वना दे सकते हैं ? जिसने कुछ ही समय में अपने दादा और पिता को खो दिया हो ?

लेखक जेमी एंडरसन लिखते हैं कि दुख इस तरह का प्रेम है, जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं। कई बार दुख, हमारे हृदय में ऐसी गहरी खाई का रूप ले लेता है, जिसे भरना असंभव सा लगता है। किसी ने प्रश्न किया कि “सामान्य  दिनों में किसी का आईसीयू में होना गंभीर लगता था, परंतु यदि वर्तमान समय में कोई आईसीयू में है, तो हम क्यों संतोष अनुभव करते हैं कि वह सुरक्षित है ?” महामारी ने हमें उस दौर में पहुँचा दिया है, जहाँ समाज को अनेक मानसिक स्वास्थ विशेषज्ञों की जरूरत पड़ने वाली है।

प्रतिदिन बढ़ती मृतकों की संख्या ने समाचार पत्रों के शोक संदेश वाले पृष्ठों को बढ़ा दिया है। 1918 के स्पेनिश फ्लू ने श्मशान और कब्रगाहों में जगह नहीं छोड़ी थी। अहमद अली के उपन्यास ‘ट्वाईलाइट इन डेल्ही’ में बताया गया है कि कैसे दिल्ली ‘ए सिटी फॉर द डेड’ बनकर रह गई थी। लोग मुर्दों के कफन बेच दिया करते थे। कब्रगाहों का शुल्क बढ़ गया था। कपड़ा व्यापारियों ने कफन के दाम बढ़ा दिए थे, और इसका सारा दोष विश्व युद्ध पर मढ़ दिया था।

पीछे की सभी त्रासदियों को संज्ञान में लेते हुए वर्तमान में दाह-संस्कार की प्रक्रिया, आत्मा को निचोड़ देने वाली हो गई है। ऑक्सीजन सिलेंडर से लेकर एंबुलेंस, दवाओं से लेकर मृतक संस्कार के शुल्कों में निर्लज्ज लाभ कमाने की हवस दिखाई दे रही है। मानव के रूप में हम विकसित हुए हैं या नीचे गिरे हैं ?

लेकिन महामारी के इस कठिन दौर में मानवता का सर्वोत्कृष्ट रूप भी देखने को मिल रहा है। ऑक्सीजन लंगर का आयोजन, अक्षय पात्र से पीड़ितों को भोजन-वितरण, मित्रों के लिए दवाइयों का प्रबंध करना, पुलिस वालों का अपनी ड्यूटी से आगे बढ़कर काम करना, स्वास्थ और सफाई कर्मचारियों का डटे रहना आदि इसी के उदाहरण हैं।

मृत्यु का आना अपरिहार्य है। यह भी पता है कि कोविड 19 घातक है। लेकिन वायरस के प्रहार से मृत्यु होने और ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी या समय पर अस्पताल में चिकित्सा न मिल पाने से होने वाली मृत्यु के बीच अंतर है।

इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि महामारी को संभालने में सरकार की तैयारी में विलंब के चलते पिछले कुछ हफ्तों में असंख्य मौते हुई हैं और वायरस पर नियंत्रण के बाद भी उसके द्वारा दिए गए दुखःदायी घाव नासूर की तरह रिसते रहेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अविजित घोष के लेख पर आधारित। 10 मई, 2021