ज्ञानवापी के संबंध में न्यायालयों का अन्याय
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18 सितंबर, 1991 को एक केंद्रीय कानून पारित किया गया था। इसे ‘पूजा स्थल कानून’ के नाम से जाना जाता है। यह एक्ट कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजास्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता है। यदि कोई इस कानून का उल्लंघन करने का प्रयास करता है, तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है।
मौजूदा कानून के बावजूद इलाहबाद उच्च न्यायालय और वाराणसी जिला न्यायालय ने ज्ञानवापी मस्जिद में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सर्वेक्षण करने की अनुमति दी है। इस पर कुछ बिंदु –
- न्यायलय ने यह कहते हुए सर्वेक्षण की अनुमति दी है कि कुछ हिंदू भक्तों की मस्जिद में स्थित अपने देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की याचिका या प्रार्थना, पूजा स्थल अधिनियम के अंतर्गत नहीं आती है। और उनकी याचिकाओं का उद्देश्य केवल अपने ईष्ट की पूजा करना है। मस्जिद को मंदिर में बदलने का उनका कोई इरादा नहीं है।
- न्यायालय के इस रुख के बिल्कुल विपरीत, भक्तों ने सर्वेक्षण में इस वैज्ञानिक तथ्य की जांच करने का आवेदन किया है कि क्या एक हिंदू मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाई गई थी। एक तरह से दोनों ही न्यायालयों ने भी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाए जाने वाले साक्ष्य सामने लाए जाने की सिफारिश की है। पर उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की अनुमति मांगने वाले याचिकाकर्ता को मस्जिद की दीवार और खंभों की तारीख और कलाकृतियों की सूची की क्या आवश्यकता हो सकती है।
- सच्चाई यह है कि पूरा मामला इसी दावे पर आधारित है कि 15 अगस्त, 1947 से पहले और बाद में इस स्थल पर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा की जा रही थी। वह दैनिक पूजा 1990 तक होती रही, और 1993 के बाद इसे साल में एक दिन की अनुमति दी गई।
सर्वेक्षण की दलील और दीवारों व खंभों की तारीख आदि का पता लगाने का पूरा उद्देश्य यही है कि मस्जिद की स्थिति में परिवर्तन की मांग की जा सके।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे न्यायालय मुस्लिम पूजा स्थलों के खिलाफ प्रेरित मुकदमेबाजी को प्रोत्साहित कर रहे हैं। जब भी कोई ऐसा आवेदन दायर किया जाता है, तो इससे कानूनी प्रक्रिया के दुरूपयोग के माध्यम से अन्याय की आशंका होने लगती है। न्यायालयों को चाहिए कि ऐसी अपीलों को हतोत्साहित करें।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 5 अगस्त, 2023