गुरूओं के पीछे क्यों भागते हैं लोग ?
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हाल ही में हाथरस में भोले बाबा के समागम में भगदड़ मचने से सौ से ज्यादा श्रद्धालु मारे गए थे। सवाल यह है कि ऐसे बाबाओं का अस्तित्व इतना लोकप्रिय क्यों हो जाता है ?
- भोले बाबा जैसे पंथ शहरों में जन्म लेते हैं, गांवों में नहीं। गांवों में तो ज्यादा से ज्यादा गरीब तपस्वी होते हैं। गांव में सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं। वहाँ मेल-मिलाप की कमी नहीं होती। शहरी जीवन के एकाकीपन को भरने के लिए ही इस प्रकार धार्मिक समागम या जागरण करवाए जाते हैं |
- गरीबी भी इसका कारण नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो गरीबों की घटती संख्या के साथ गुरूओं के भक्तों में अपने आप कमी हो जाती। उल्टे, भक्तों की संख्या तो बढ़ती ही जा रही है।
- ऐसे गुरू इसलिए सफल होते हैं, क्योंकि लाखों लोग ऐसे हैं, जो बीमारी या नौकरी छूटने जैसी किसी घटना के कारण नीचे आ गए हैं। ऐसी अनिश्चितता शहरी भारत में दिखाई देती है। यह लोगों को सांत्वना की तलाश में भटकाती है। जब बहुत कुछ भाग्य पर निर्भर करता है और आत्मविश्वासी कौशल पर कम, तो स्वाभाविक रूप से ईश्वर पर विश्वास बढ़ता है।
अमेरिका में भी ऐसी घटनाएं देखी जाती हैं। वहाँ चर्चों में उपस्थिति में भले ही कुछ गिरावट आई हो, लेकिन ईसाई मत का प्रचार करने वाले कॉलेजों या चर्चों के पंजीकरण में कोई कमी नहीं आई है।
- अंत में, यह धारणा की समस्या भी है। कई गुरूओं के दुनियाभर में भव्य आश्रम हैं। कुछ पर आपराधिक मुकदमें भी चल रहे हैं। लेकिन भक्तगण ऐसे तर्कों को कोई तूल नहीं देते हैं। उनके लिए विज्ञान ही सब कुछ नहीं है।
कांट और विवेकानंद ने सदियों से तर्क दिया है कि विज्ञान और धर्म को आपस में नहीं मिलाना चाहिए। ऐसा इसलिएए क्योंकि “धर्म आध्यात्मिक दुनिया के सत्यों से निपटना है, जबकि विज्ञान भौतिक दुनिया के सत्य से निपटते हैं।’’ यहाँ तर्कवादी गलत इसलिए कहे जा सकते हैं, क्योंकि वे दुनिया को द्विफोकल लैंस से नहीं देखते। धार्मिक विश्वास की अपनी जगह है, और इसलिए धाार्मिक प्रचारक सफल होते चले जाते हैं।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित दीपांकर गुप्ता के लेख पर आधारित। 13 जुलाई, 2024