संदिग्ध परंपरागत ज्ञान पर वैधता की मोहर क्यों ?

Afeias
10 Dec 2018
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Date:10-12-18

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हाल ही में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् के कुछ ऐसे प्रयास सामने आए हैं, जो प्राचीन भारत की हमारी विरासत का एक प्रकार से अपमान कर रहे हैं। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् (ए आई सी टी ई) एक ऐसी संस्था है, जिसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए स्थापित किया है। इस संस्था के साथ मिलकर दिल्ली का भारतीय विद्या भवन अपनी वेबसाइट के जरिए मैट्रिक पश्चात् कोर्स के रूप में ‘एसेंस ऑफ  इंडियन नॉलेज ट्रेडिशन’ एवं स्नातकोत्तर डिप्लोमा के रूप में ‘इंडियन नॉलेज ट्रेडिशन : साइंटिफिक एण्ड होलिस्टिक’ पेश कर रहा है।

इस पाठ्यक्रम से संबंधित पाठ्य पुस्तक में प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा लिखे गए महाकाव्यों के अंशों में आधुनिक वैज्ञानिक सत्यों के होने का दावा किया जा रहा है। जैसे कि महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित ग्रंथ ‘यंत्र सारस्वत’ में वैमानिकी की मौजूदगी की बात विद्यार्थियों को बताई गई है।

शिक्षा के इस तरीके से अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। जैसे, “यंत्र सारस्वत“ जैसे महाकाव्यों के अस्तित्व के प्रमाण क्या हैं? अगर उसमें वैमानिकी जैसे विषय पर चर्चा की गई है, तो उसकी परिभाषा किस रूप में दी गई है? महाकाव्य के अशों को उद्धृत करने का स्रोत क्या है? आदि, आदि।

ऐसे प्रश्न हर उस विद्यार्थी के द्वारा पूछे जा सकते हैं, जो आधुनिक विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर रहा है।

हाल ही के कुछ वर्षों में प्राचीन ग्रंथों को आधार बनाकर, उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी खोजों से संबंद्ध करने का एक चलन सा बन गया है। सन् 2002 में एक शल्य चिकित्सक ने सौ कौरवों के जन्म की कथा के आधार पर यह घोषणा कर दी थी कि महाभारत काल में टेस्ट ट्यूब बेबी की तकनीक ज्ञात थी। इतना ही नहीं, बल्कि आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात, स्त्री शरीर से बाहर भ्रूण विकास की तकनीक भी ज्ञात थी।

प्राचीन ग्रंथों की कथाओं का आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों से मेल खाना महज एक संयोग माना जा सकता है। फिर भी आधुनिक विज्ञान की वेदी पर प्राचीन ऋषि-कवियों और नाट्यकारों की रचनात्मकता की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती। उनकी सृजनात्मकता का मूल्य उन्हें दिया जाना चाहिए। गणेश भगवान के मस्तक पर हाथी के मस्तक का होना या कुंती द्वारा मंत्र के उच्चारण मात्र से पुत्र-जन्म का होना आदि सृजनात्मकता या कल्पना का चमत्कार ही कहा जा सकता है। क्योंकि इन घटनाओं की न तो प्रक्रियाएं मिलती हैं, और न ही इनके कोई साक्ष्य हैं।

दुर्भाग्यवश, इन काल्पनिक घटनाओं को देश के अति विशिष्ट व्यक्त्यिों के उद्बोधन का हिस्सा बनाने के साथ ही अब उन्हें व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाया जा रहा है।

निश्चित रूप से, विज्ञान निरंतर प्रगति कर रहा है। वर्तमान में धन की प्राप्ति भी आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक पर निर्भर करती है। प्राचीन भारत में समृद्धि का आधार कृषि एवं गैर-संगठित विनिर्माण गतिविधियां रहा करती थीं। इन दो धुरियों पर चलने वाला ज्ञानक्षेत्र, किसानों और शिल्पकारों की जागीर हुआ करता था। अतः कोई कारण नहीं था कि समानांतर चलने वाले इस ज्ञानक्षेत्र को प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के रचयिता अपने काम में सम्मिलित करें। दूसरे शब्दों में कहें, तो आधुनिक तकनीक से जुड़े ज्ञान की जड़ों को प्राचीन पवित्र ग्रंथों में ढूंढे जाने का कोई तुक नहीं बनता।

ए आई सी टी ई को अपना वर्तमान प्रस्ताव स्थगित कर देना चाहिए। भारतीय विद्या भवन को चाहिए कि ऐसे पाठ्यक्रम से जुड़ी पाठ्य पुस्तकों के मसौदे को ऑनलाइन अपलोड करे, और लोगों को इस पर शोध करके अपनी टिप्पणियां प्रस्तुत करने का अवसर दें। इसके बाद ही पाठ्य पुस्तक को अंतिम रूप से तैयार किया जाए।

वर्तमान प्रस्ताव तो वास्तव में इंसानी बौद्धिकता के लिए अपमानजनक है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित राजेश कोच्चर के लेख पर आधारित। 31 अक्टूबर, 2018

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