गुट निरपेक्षता को बनाए रखे भारत

Afeias
11 Nov 2020
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Date:11-11-20

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भारत और चीन के बीच लद्दाख में हुए टकराव और इजरायल द्वारा वेस्ट बैंक के विनाश की योजना ने वैश्विक शक्ति के वर्तमान परिदृश्य को सामने ला दिया है। 1990 के दशक में , सोवियत संघ के विघटन के बाद फ्रांसिस फुकुयामा ने ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा की थी , और वैश्विक राजनीति के संचालन में विचारधारा को महत्वहीन और अप्रासंगिक माना था। शीतयुद्ध के बाद अस्तित्व में आने की आशंका वाले विश्व जो अमेरिकी प्रभुत्व पर चल रहा है , ने पूंजीवाद को बढ़ावा दिया। हालांकि , 9/11 जैसी घटनाओं ने अमेरिका और उसके सहयोगियों को आड़े हाथों लिया है। पहले से भिन्न तरीकों के माध्यम से सुरक्षा , युद्ध और आधुनिकता की स्थापित अवधरणाओं को चुनौती दी जाने लगी है।

2008 की आर्थिक मंदी ने नवउदारवादी विश्व व्यवस्था की वास्तविकताओं को उजागर किया। पूंजीवाद के तर्कसंगत और उथल-पुथल के चक्रव्यूह से कई संस्थाओं को चोट पहुँची और वे चरमरा गईं। इससे हजारों लोग बेरोजगार और निराश्रित हुए। देशों को कुछ बड़े-बडे वित्तीय निगमों को सार्वजनिक निधि से राहत देनी पड़ी। पश्चिमी देशों ने इस संकट से उत्तरदायित्व के बंटवारे और नए विश्व की वास्तविकताओं से तालमेल बैठाने के महत्व को समझा। इसी के साथ ही चीन और भारत को महत्व मिलना शुरू हुआ , और उनका आर्थिक विकास हुआ। नवउदारवाद के ढांचे के साथ अमीर देशों के जी-8 समूह का स्थान जी-20 ने ले लिया। यह व्यवस्था भी शक्ति की साझेदारी और उत्तरदायित्व से बचने के लिए की गई थी। इसने सभी निर्धन देशों को निर्णयात्मक परिधि से बाहर रखा था। अमीर राष्ट्रों को ही सबके लिए निर्णय लेने का अधिकार था।

यह व्यवस्था आज संकट के घेरे में है। पूरे विश्व की वर्कशॉप के रूप में चीन के उदय ने सभी को असुरक्षित कर दिया है। इसके चलते अमेरिका और चीन में ट्रेड-वॉर भी चल रहा है। अब फिलहाल द्विध्रुवीय विश्व में भारत तो अमेरिका के साथ चल रहा है , और दूसरे सिरे पर चीन है।

स्वतंत्रता के समय भारत ने इसी प्रकार की स्थिति का सामना किया था। फिर भारत ने शीत-युद्ध समूहों में शामिल होने से इंकार कर दिया और एक गुट निरपेक्ष विदेश नीति का विकल्प चुना। हाल के कुछ वर्षों में , भारत की विदेश नीति का झुकाव अमेरिका और नवउदारवादी ढांचे की ओर हो गया है। भारतीय हितों को इस माहौल में संभाला नहीं जा सकता। यह वह अमेरिका है , जहां फिलिस्तीन के समर्थन का मजाक उडाया गया और गुटनिरपेक्षता का त्याग किया गया। अब अमेरिका , एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिए चीन के विरूद्ध संघर्ष में भारत को खींच रहा है। भारत ने अमेरिका के साथ जो व्यापारिक समझौते किए हैं , उनसे जीविका , कृषि-भूमि और हमारे कामकाजी वर्ग के श्रम-अधिकारों को हानि पहुँच रही है।

समय की मांग –

आज पूरे विश्व को आपसी सहयोग , सम्मान और सार्वजनिक भागीदारी की आवश्यकता है। कोविड-19 के वर्तमान दौर में निजी स्वास्थ व्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त हैं , जबकि एक समाजवादी सार्वजनिक स्वास्थ प्रणाली वाले देश बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। सार्वजनिक स्वास्थय और शिक्षा के बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए दुनिया को एक साथ आने की आवश्यकता है। भारत को 1990 की एकध्रुवीय और वर्तमान की द्विध्रुवीय व्यवस्थाओं से दूर ही रहना चाहिए। भारत को अपने गुट निरपेक्ष सिद्धांतों पर ही अडिग रहकर एक समावेशी , बहुध्रुवीय और न्यायपूर्ण विश्व के निर्माण हेतु सृजनात्मक भूमिका निभानी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र की 75वीं आम सभा के अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत की सदस्यता पर जोर दिया है। भारत के आकार , इतिहास , अर्थव्यवस्था और वैश्विक मामलों में निर्माणात्मक भूमिका निभाने की क्षमता को देखते हुए यह मांग जायज है। भारत को यू एन एस सी में अपनी उपस्थिति का उपयोग उन राष्ट्रों के प्रतिनिधित्व के लिए करना चाहिए , जो हाशिए पर है।

दुर्भाग्य से , पिछले कुछ वर्षों में भारतीय विदेश नीति की दिशा , इस व्यापक समावेशी दुनिया के साथ एकजुटता पर आधारित नहीं चल रही है। इस संदर्भ में भारत और चीन जैसी दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को सीमा विवाद को हल करने के लिए एक सार्थक बातचीत में संलग्न होना चाहिए। भारत को चाहिए कि वह दुनिया को पर्यावरण के प्रति और अधिक संवेदनशील बनाने का प्रयास करे। एक स्वतंत्र विदेश नीति का अनुसरण करने वाला भारत न केवल स्वयं दक्षिण-एशियाई क्षेत्र के लिए आवश्यक है , बल्कि दुनिया की वंचित आबादी का भी तारणहार बन सकता है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित डी राजा के लेख पर आधारित। 26 अक्टूबर , 2020