संयुक्त राष्ट्र में भारत की यात्रा

Afeias
10 Nov 2020
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Date:10-11-20

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भारत के हितों की सुरक्षा और भविष्य की चुनौतियों की दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र की जरूरत को किसी भी स्थिति में नकारा नहीं जा सकता। यह अपरिहार्य है। इसकी भूमिका में कुछ सुधारों की आवश्यकता जरूर महसूस की जा रही है।

संयुक्त राष्ट्र से जुड़े भारत के तीन चरण

संयुक्त राष्ट्र में भारत के साढे़ सात दशकों की सदस्यता और चरणों को लगभग तीन भागों में बांटा जा सकता है।

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  • 1989 में शीतयुद्ध की समाप्ति तक के पहले चरण में भारत ने एशिया और अफ्रीका में सशस्त्र संघर्षों को कम करने के लिए महाशक्तियों की प्रतिद्वंदिता से अलग होकर एक उदार बल के रूप में अपने कूटनीतिक प्रभाव को तलाशने और बढ़ाने की भूमिका निभाई थी।
  • साथ ही भारत ने यह भी समझ रखी कि जम्मू-कश्मीर जैसा महत्वपूर्ण और द्विपक्षीय विवादों को निष्पक्ष रूप से हल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
  • अतः भारत संयुक्त राष्ट्र का उपयोग केवल सामान्य कारणों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए करता रहा जैसे- उपनिवेशवाद-विरोध, नस्लवाद, परमाणु-निरस्त्रीकरण, पर्यावरण संरक्षण और समान आर्थिक विकास।
  • 1988 में भारत ने एक साहसिक कदम उठाते हुए परमाणु हथियारों को खत्म करने के लिए तीन चरण की योजना का प्रस्ताव करके उच्च नैतिक उदाहरण प्रस्तुत किया था। कई अर्थों में यह अव्यावहारिक था। इसके साथ ही भारत ने अपने पड़ोसी देशों द्वारा उठाए जाने वाले द्विपक्षीय विवादों का विरोध किया। भारत की यह नीति बांग्लादेश स्वतंत्रता युद्ध और उसके पश्चात् भी दिखाई देती है।

(2)

  • शीत युद्ध के समाप्त होते ही, सोवियत यूनियन के विघटन और अमेरिका के विश्व शक्ति के रूप में उभरने से यह दशक भारत के लिए कठिन रहा। सरकारों की अस्थिरता और गठबंधन सरकारों की अनिश्चितता के साथ-साथ सुरक्षा परिषद् और यू एन जनरल असेंबली जैसे विभिन्न निकायों में शामिल होने के लिए भुगतान संकट के संतुलन की समस्या बनी रही।
  • इस दौर में भारत की विदेश नीति बदली, जो संयुक्त राष्ट्र के मतदान पैटर्न में प्रतिबिंबित होती है। इराक के कुवैत पर कब्जा हटने के बाद भी भारत ने उस पर कठोर शर्तें लगाए रखीं। यहूदीवाद को जातिवाद की उल्लिखित स्थिति से अलग रखने में व्यावहारिकता दिखाई।
  • 1990 के ही दशक में पाकिस्तान ने कश्मीर में मानवाधिकार हनन के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया। भारत को पाकिस्तान की जाँच के लिए मानवाधिकार आयोग में ईरान और चीन से एहसान लेने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
  • 1996 में संयुक्त राष्ट्र की अस्थायी सीट के लिए भारत को जापान से हारना पड़ा।
  • भारत 1995 में हुई परमाणु अप्रसार संधि के अनिश्चितकालीन विस्तार के खिलाफ खड़ा था, और इसने 1996 में व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि को अपनाने के लिए पिछले रास्ते को अपनाना अस्वीकार कर दिया।

यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र में इन दो चरणों ने शायद दुनिया को आश्चर्यचकित किया था। 1998 में पोखरण परमाणु हथियार परीक्षणों के साथ भारत ने परमाणु संपन्न देशों की प्रतिकूल प्रतिक्रिया को नजरअंदाज कर दिया था।

(3)

  • 21वीं सदी ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के चमकने के रास्ते खोल दिए। पहले दशक में प्रभावशाली आर्थिक प्रदर्शन, आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने भारत की स्थिति को बहुत मजबूत कर दिया था।
  • अफ्रीका के अनेक संघर्षरत क्षेत्रों में भारतीय शांति सेना ने झंडे गाड़ दिए।
  • इसके साथ ही भारत गैर-पारंपरिक सुरक्षा के मुद्दों जैसे छोटे और हल्के हथियारों के प्रसार, बड़े पैमाने पर विनाशकारी हथियारों को गैर-जिम्मेदार लोगों के पास जाने से रोकने और जलवायु-परिवर्तन के प्रभाव को जांचने-परखने और नियंत्रित करने में एक जिम्मेदार हितधारक के रूप में उभरा है।
  • विकास को बढ़ावा देने और मानवाधिकारों की अगुवाई करने वाली संस्थाओं में भी भारत ने अपना योगदान दिया है।
  • भारत की बढ़ती साख का परिचय मानवाधिकार परिषद् विश्व न्यायालय, यूएनएससी, आर्थिक और सामाजिक परिषद् में चीन और यूनाइटेड किंगडम के प्रत्याशियों को हराने में मिलता है।

सुरक्षा परिषद् के विस्तार का मामला –

इसमें भारत की स्थायी सदस्यता का मामला 25 वर्षों से अटका हुआ है। इसका कारण क्षेत्रीय एकता का अभाव रहा है। इटली और पाकिस्तान जैसे मध्यम शक्ति संपन्न देश भारत का लगातार विरोध करते रहे हैं। हालांकि भारत को अब तक का सबसे बड़ा समर्थन प्राप्त है।

भारत की आगामी भूमिका को अनेकानेक संकटों का सामना करना पड़ सकता है। इनमें आर्थिक मंदी और चीन से बिगड़ते संबंध, दो प्रमुख चुनौतियां हैं।

नए सोपान

जल्द ही भारत यू एन एस सी के अस्थायी सदस्य के रूप में अपना दो साल का कार्यकाल शुरू करेगा। इसकी प्राथमिकता के क्षेत्रों में चार्टर सिद्धांतों का पालन जारी रहेगा। इसमें आतंकवादियों को वित्तीय सहायता देने व प्रायोजित करने वालों के खिलाफ प्रभारी दंडात्मक उपायों को लागू करना और शांति अभियानों के प्रबंधन में सैन्य योगदान करने वाले देशों को सेना भेजने के लिए तैयार करना शामिल है।

जहां तक संभव होगा, भारत प्रमुख सवालों पर आम सहमति के लिए काम करेगा। लेकिन यह एक या दो स्थायी सदस्यों सहित अन्य सदस्यों से परहेज करने का विकल्प चुन सकता है।

भारत को यू एन एस सी में चुनौतियों और अवसरों दोनों के लिए ही तैयार रहना चाहिए। पाकिस्तान की संतुष्टि के लिए शायद चीन, कश्मीर पर एक औपचारिक बैठक बुला सकता है। ऐसी स्थिति में भारत या तो मतदान से अलग रह सकता है या फिर वह किसी प्रतिकूल प्रस्ताव के खिलाफ भी मतदान कर सकता है। विरोध में मतदान भारत के लिए अपनी तरह का पहला प्रयोग होगा। दूसरी ओर, अमेरिका से बढ़ती निकटता के चलते भारत को तटस्थ न रहने का इशारा मिल सकता है। उम्मीद की जा सकती है कि भारत अपनी कूटनीतिक सफलता का परिचय देते हुए आगे बढ़ता जाएगा।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित सी.एस.आर.मूर्ति के लेख पर आधारित। 24 अक्टूबर, 2020

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