संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में नेहरुकालीन भारत की चूक

Afeias
14 Jun 2019
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Date:14-06-19

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संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता को लेकर काफी समय से अटकलें चल रही हैं। सुरक्षा परिषद में कुल 15 सदस्य होते हैं, जिनमें पाँच स्थायी सदस्य, तो अन्य दस अस्थायी सदस्य दो साल की अवधि के लिए चुने जाते हैं। इसके स्थायी पाँच सदस्यों को बिग फाइव या पी फाइब के नाम से जाना जाता है। ये सभी परमाणु सम्पन्न देश हैं। इनमें चीन, फ्रांस, रशिया, ब्रिटेन और अमेरिका हैं।

विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र होने के नाते भारत, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए लगातार दावेदारी कर रहा है। इसके पाँच सदस्यों में से चीन को छोड़कर अन्य चार भारत की दावेदारी के समर्थक हैं। परन्तु इसके प्रत्येक प्रयास को चीन अपने वीटो से निरस्त कर देता है।

हाल ही में 1950 के दौरान की एक फाइल से इस बात का खुलासा हुआ है कि उस समय के सोवियत यूनियन ने भारत को सुरक्षा परिषद के छठे स्थायी सदस्य के रूप में शामिल किये जाने का प्रस्ताव रखा था, जबकि अमेरिका पहले ही चीन के स्थान पर भारत को शामिल करने का प्रस्ताव रख चुका था।

तत्कालीन नेताओं, नेहरू और मेनन ने अमेरिका के प्रस्ताव को चीन के विरुद्ध भारत को खड़ा करने का षड़यंत्र मानकर अस्वीकार कर दिया था। परन्तु सोवियत यूनियन के प्रस्ताव में इस प्रकार की कोई आशंका नहीं थी। तत्कालीन रशियाई प्रधानमंत्री बुल्गेनिन ने अपने प्रस्ताव पर नेहरू के विचार जानने चाहे थे। परन्तु नेहरू ने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। इसके बाद प्रधानमंत्री बुल्गेनिन ने भी इस मुद्दे का आगे बढ़ाना शायद ठीक नहीं समझा।

अगर नेहरू ने बुल्गेनिन के प्रस्ताव पर विचार करके सहमति जताई होती, तो इस हेतु एक चार्टर संशोधन लाए जाने की आवश्यकता होती। इस चार्टर को सुरक्षा परिषद की जनरल असेंबली के ग्यारहवें अधिवेशन के एजेंडा में शामिल कराए जाने की आवश्यकता होती, जो 1956 में सम्पन्न होने वाली थी। इस अधिवेशन में लैटिन अमेरिका ने अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाए जाने संबंधी मुद्दा शामिल करवाया था। अतः भारत के लिए यह अच्छा मौका था, जब वह स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाए जाने संबंधी एजेंडा भी शामिल करवा सकता था।

अमेरिका की तत्कालीन भारतीय राजदूत विजयलक्ष्मी पंडित जो नेहरू की बहन थीं, ने अमेरिकी प्रस्ताव पर तो अमेरिकी वार्ताकार को इस मुद्दे पर जल्दबाजी न करने की सलाह दे दी, परन्तु इसके बाद आए सोवियत प्रधानमंत्री के प्रस्ताव पर किसी तरह का विचार करने को कदम आगे नहीं बढ़ाया।

नेहरू की यह सोच कि सुरक्षा परिषद की सदस्यता को लेकर भारतीय निर्णय का कोई प्रभाव भारत-चीन रिश्तों पर नहीं पड़ना चाहिए, गलत सिद्ध हुईं। आगामी दशक में भारत-चीन युद्ध हुआ, और चीन अधिक उग्र होता गया।

संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया सम्पन्न होने में समय लगता है। अस्थायी सदस्यों की संख्या के विस्तार को 1965 में मानकर 11 से 15 कर दिया गया। 1990 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता में विस्तार का एजेंडा शामिल किया गया था। हो सकता है कि इसके पारित होने के लिए भारत को अभी और इंतजार करना पड़े। दूसरे, चीन अपनी वीटो शक्ति के रहते ऐसा होने देगा, इस पर संदेह है। अजहर समूह के मुद्दे में हुई कठिनाई का हाल जगजाहिर है।

चीन ने 1971 में ताईवान को सुरक्षा परिषद से हटाया, और 1972 में बांग्लादेश को सदस्य बनाने के लिए पहली बार अपने वीटो का इस्तेमाल किया था। चीन ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वह 1971 के युद्ध में भारत को हुए भू-राजनैतिक लाभ को निष्क्रिय करना चाहता था।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता से जुड़ी फाइल को गुप्त सूची से बाहर निकालकर सार्वजनिक किया जाना चाहिए। जनता को इसका सत्य जानने का अधिकार है।

द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित डी पी श्रीवास्तव के लेख पर आधारित। 15 मई 2019               

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