चीन के भूकंप से थरथराता संयुक्त राष्ट्र

Afeias
12 Nov 2020
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Date:12-11-20

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संयुक्त राष्ट्र की 75वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में , इतने लंबे अरसे तक उसके अस्तित्व में छिपी उसकी सफलता को रेखांकित अवश्य किया जाना चाहिए। यह एक अंतर-सरकारी संगठन है , जो उसके सदस्यों की विचारधारा पर आकार लेता है। इसका पूर्ववर्ती राष्ट्र संघ , बडी शक्तियों की सैन्य आक्रामकता से जन्में द्वितीय विश्व युद्ध के कारण दो दशकों के भीतर ही ढह गया था ।

विश्व में चलने वाले शीत युद्धों और इसके स्थायी सदस्यों के बीच लगातार चलने वाले झगड़ों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र ने अपना अस्तित्व बनाए रखा है। इस बीच इस पर निरंतर तीसरे विश्व युद्ध की छाया मंडराती रही है।

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना का प्राथमिक उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना था। विश्व की पाँच बड़ी सैन्य शक्तियों ( विश्वयुद्ध -2 के विजेता देशों) ने एकजुट होकर विश्व को भविष्य में युद्धों की आशंका से बचाए रखने का संकल्प लिया था। इस संकल्प की पूर्ति के लिए उन्होंने खुद को सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनाया। चूंकि वे संयुक्त रूप से काम करने वाले थे , इसलिए उनमें से किसी एक का भी नकारात्मक मत वीटो बन गया।

पिछले 75 वर्षों में स्थायी सदस्यों ने संयुक्त रूप से कभी कोई सैन्य कार्यवाई नहीं की। इसके बजाय उन्होंने संकल्पों पर असहमति जताने के लिए 254 बार वीटो का प्रयोग किया है। नतीजतन , दुनिया के कई हिस्सों में युद्ध होते रहे , जिनमें से अधिकांश में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनकी भागीदारी रही है।

  • वियतनाम युद्ध के लिए अमेरिका को किसी प्रस्ताव पर वीटों नहीं करना पड़ा , क्योंकि उस दौरान सुरक्षा परिषद् की कमान उसके हाथ में थी।
  • अफगानिस्तान युद्ध के दौरान सोवियत संघ को केवल एक बार ऐसा करना पड़ा था।
  • सोवियत संघ के पतन के बाद दो दशकों की संक्षिप्त अवधि के लिए रूस और चीन ने कुवैत , पूर्वी यूगोस्लाविया, सोमालिया , रवांडा और लीबिया जैसे देशों में सैन्य कार्यवाई के लिए पश्चिमी देशों को अनुमति दी , लेकिन वे स्वयं इसमें शामिल नहीं हुए।

इनमें से कुछ अभियानों की वैधता पर प्रश्न भी उठे हैं , लेकिन इन पर अपील के लिए कोई न्यायालय न होने से इनकी कभी जांच नहीं की गई।

आते बदलाव

स्थायी पांच सदस्यों के बीच आम सहमति का व्यवहार एक दशक पहले खत्म हो गया और अमेरिका , एशिया और चीन के बीच एक बार फिर वीटो का प्रयोग शुरू हुआ। रूग्ण सुरक्षा परिषद् अब अधिक गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है।

संयुक्त राष्ट्र का भाग्य वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति के साथ अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। यह 2008 के आर्थिक संकट के बाद से सुस्त पड़ गया है। चीन और अमेरिका के बीच के ट्रेड वॉर ने स्थितियों को जटिल बना दिया था , और अब कोविड महामारी के चलते यह परिदृश्य और भी विवादग्रस्त लगने लगा है।

पुनरावलोकन की आवश्यकता

सुरक्षा परिषद् को जीवित रखने के लिए पंचशक्तियों की सीमा से बाहर निकलना होगा। इसके स्थायी सदस्य अभी भी विश्व की सर्वश्रेष्ठ सैन्य शक्तियां हैं , परंतु अब ये शक्तियां भी गहरे परिवर्तनों से गुजर चुकी हैं। अब संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के पुनः अवलोकन की आवश्यकता है। सोवियत संघ का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। रिपब्लिक ऑफ चाइना की जगह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने ले ली है। ये दोनों ही परिवर्तन संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में किसी संशोधन के बिना ही संपन्न हो गए।

फ्रांस और ब्रिटेन जैसे दो स्थायी सदस्य अब पहले की तरह विश्व शक्ति नही रहे। इन दोनों का ही कद संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता के योग्य नही रह गया है।

अमेरिका की सदस्यता अक्षुण्ण रखी जा सकती है , परंतु इसके बहुपक्षीय नीति का लगातार विरोधी होना संशय की स्थिति को जन्म देता है।

चीन का उदय और बढ़ता खतरा –

चीन के उदय और बढते प्रभुत्व के साथ यह तय है कि आने वाले समय में संयुक्त राष्ट्र में चीन का बोलबाला रहेगा। इसके परिणामों पर अभी देशों का ध्यान नहीं है। सभी स्थायी सदस्यों ने सुरक्षा परिषद् में निंदा से बचने और संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों को नियंत्रित करने के लिए वीटो का दुरूपयोग किया है। चीन की प्रवृत्ति और भी खतरनाक है। वह चार्टर के मूलभूत दायित्व की घोर अवमानना करता है। ताइवान के खिलाफ चीन की नीतियां चार्टर के पत्र और भावना के विरूद्ध हैं।

संयुक्त राष्ट्र के लोकतंत्र , मानवाधिकारों और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान जैसे मूल्यों के प्रति भी चीन प्रतिबद्ध नहीं है। केवल चीन ही एक ऐसा प्रमुख देश है , जो नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वचन का पक्षकार नहीं है। इसने दक्षिण चीन सागर विवाद में एक अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के फैसले का सम्मान करने से भी इनकार कर दिया है। यह संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था पर हावी होना चाहता है। संयुक्त राष्ट्र की 15 विशिष्ट एजेंसियों में से चार का नेतृत्व अब चीनी नागरिक कर रहे हैं।

चीन के बढ़ते प्रभुत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र में न केवल सदस्यों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए , बल्कि इसके अस्तित्व की सुरक्षा के लिए इसमें यथासंभव सुधार भी किए जाने चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित दिलीप सिन्हा के लेख पर आधरित। 26 अक्टूबर, 2020

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