चौराहे पर खड़े भारत की वास्तविकता
Date:28-12-20 To Download Click Here.
व्यक्तिगत घटनाएं अक्सर व्यापक प्रवृत्तियों का एक संकेतक होती हैं। वर्तमान में होने वाली घटनाओं से भविष्य की दृष्टि महत्वपूर्ण रूप से जुड़ी होती है। भारत के वर्तमान में होने वाली घटनाओं के लिए यह कहना सही नहीं है। यहाँ के नीति निर्माता किसी मुद्दे पर सार्वजनिक मत लेने के इच्छुक दिखाई नहीं देते हैं। लेकिन ऐसी अनिश्चितता के दौर में उन्हें जनशक्ति के भय से वास्ता रखना चाहिए और उन्हें आश्वस्त भी करना चाहिए। हाल के कुछ हफ्तों में भारत एक युद्ध क्षेत्र की तरह लगने लगा है। लेकिन वर्तमान की चिंता को संबोधित करते हुए ‘सहमति’ बनाने के लिए कोई आश्वासन नहीं दिया जा रहा है।
अर्थव्यवस्था की स्थिति –
भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब है। यह मंदी के दौर से गुजर रही है और सभी प्रमुख देशों में से इसकी स्थिति सबसे बुरी कही जा सकती है। प्रमुख मुद्राओं में, भारतीय रुपया उन कुछेक में से है, जो गिरावट की ओर हैं। भारत में रैन्समवेयर हमले बहुत ज्यादा हो रहे हैं। भारत का दृष्टिकोण और नीतियां संरक्षणवादी होती जा रही हैं।
इस बीच, भारत के बाहरी संबंधों में भी वातावरण काफी निराशाजनक है। चीन को सीमा-विवाद के समाधान की कोई जल्दी नहीं लगती है। भारत-पाकिस्तान के संबंध बदतर हो सकते हैं। चीन ने मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैण्डिंग टू बूस्ट द चाइना-पाकिस्तान रिलेशनशिप जैसा नया सैन्य समझौता किया है। पश्चिम एशिया से संबंध के मामले में भारत को अभी तक कोई परिणाम नहीं मिले हैं।
कठोर होती राजनीति –
यह सच है कि भारत में होने वाले आतंकी हमलों में कमी आई है, माओवादी हिंसा नियंत्रण में है और पूर्वोत्तर भारत में स्थिति बहुत बेहतर है। लेकिन संपूर्ण विश्व भारत से इस प्रश्न का उत्तर चाहता है कि क्या भारत ने अपने सिद्धांत के लिए अपनी लोकतांत्रिक दृष्टि को त्याग दिया है, और क्या वह अपनी नीतियों में कठोर बने रहना चाहता है? पिछले वर्ष, संविधान के अनुच्छेद 370 की समाप्ति में इसकी झलक मिल चुकी है। इसी प्रकार, नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में होने वाले विद्रोह भी सरकार की कठोर नीतियों का ही एक परिणाम कहे जा सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में हाल में हुए जिला विकास परिषद् के चुनावों में ‘निर्देशित लोकतंत्र’ को एक प्रकार लागू करने का प्रयास किया गया है। इसमें विपक्षी गठबंधन को इस प्रकार से दर्शाया गया है, जैसे वह देश के हितों के विरोध में काम कर रहा हो।
किसी भी कीमत पर चुनावी जीत –
आज के चुनावों का एकमात्र लक्ष्य येन-केन प्रकारेण चुनावों में जीत हासिल करना है। केवल उत्तरप्रदेश और बंगाल ही चुनावी हिंसा का शिकार नहीं हैं, बल्कि यह प्रक्रिया प्रत्येक राज्य का हिस्सा बन चुकी है। राजनीतिक ध्रुवीकरण के अलावा अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का व्यापार चलता रहता है। बहुसंख्यकवाद को हथियार बनाकर वोटों का ध्रुवीकरण करने के परिणाम घातक होते हैं। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए इन दांव पेंचों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
भारतीय लोकतांत्रिक ढांचे के झीनेपन के उदाहरण कई क्षेत्रों में दिखाई दे रहे हैं। संवैधानिक संरक्षण और व्यक्तिगत अधिकारों का हनन किया जा रहा है। हाल ही में ‘लव जिहाद’ को लेकर बनाया गया कानून इसका साक्ष्य प्रस्तुत करता है। राजनीतिक अपराधियों के साथ जेल में बुरा बर्ताव किया जा रहा है। उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। असंतुष्टों को शहरी नक्सल बताकर जेलों में ठूंसा जा रहा है।
सोशल मीडिया पर शिकंजा –
दुष्प्रचार के मामले में भले ही भारत अग्रणी देश न हो, परंतु झूठी खबरों और सोशल मीडिया पर फैलाई जाने वाली इन खबरों का हानिकारक इस्तेमाल हो रहा है। वामपंथियों के गढ़ केरल राज्य में तो सोशल मीडिया पर किसी अपमानजनक पोस्ट के लिए कारावास का दण्ड कानून लाया गया। हालांकि बाद में इसे वापस ले लिया गया, लेकिन अभी भी कई राज्य इस प्रकार का कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं।
किसान आंदोलन –
कृषि विधेयकों के खिलाफ चलाया जा रहा किसान आंदोलन, बिना पर्याप्त चर्चा और स्वीकृति के कोई कदम उठाने का एक और उदाहरण है।
शुरूआत में कनाडा के प्रधानमंत्री ने पंजाब के किसानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की थी। तत्पश्चात् यू.के. के 36 सांसदों ने अपने विदेश सचिव को एक पत्र साझा करते हुए लिखा है कि “लोगों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार है, और सरकार को चाहिए कि वह उन्हें ऐसा करने दे।” पश्चिमी देशों के प्रवासी भारतीय भी किसानों का समर्थन कर रहे हैं।
इससे कहीं ज्यादा यह मायने रखता है कि भारत की अवधारणा क्या है? क्या यह लोकतंत्र की बजाय तानाशाही के अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के इरादे से लोगों की मांगों और विरोधों पर बहुत कम ध्यान दे रहा है?
‘द हिंदू’ में प्रकाशित एम.के.नारायणन के लेख पर आधारित। 10 दिसम्बर, 2020