भारत में ‘नारी शक्ति’

Afeias
20 Aug 2021
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Date:20-08-21

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यह क्रूर विडंबना ही है कि जिस हफ्ते भारत की महिला ओलंपियन का पूरे देश में जश्न मन रहा था, उसी दौरान दिल्ली में नौ वर्ष की एक बच्ची वहशियों के हमले का शिकार हुई थी। जहां राजनेता खिलाडियों की उपलब्धियों के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी पहल को श्रेय देते है, वहीं महिलाओं के प्रति अपराध होने पर वे अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता का परिचय देने से नहीं चूकते हैं। हाल ही में बेनाडलिम में दो नाबालिगों के सामूहिक बलात्कार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, गोवा के मुख्यमंत्री ने पूछा था कि 14 वर्षीय लड़कियां रात को समुद्र तट पर क्यों थीं ? इसका अर्थ है कि लड़कियों और उनके माता-पिता को दोषी ठहराया गया था।

सच्चाई यह है कि भारत एक पुरूष प्रधान समाज है, जहां महिलाओं के लिए न्याय अभी भी दूर की चीज है। हालांकि बहादुर महिला एथलिटों द्वारा कई पदक जीते जाते हैं। 1960 के दशक से तुलना करें, तो खेलों में महिलाओं की हिस्सेदारी 30% तक हो गई है। अंतरराष्ट्रीय महिला हॉकी टीम की अनेक खिलाड़ियों के जीवन उल्लेखनीय हैं। लेकिन वहीं कुछ महिलाएं नौकरी पाने के लिए भी संघर्ष कर रही हैं। ओलंपिक के दौरान जारी एक सरकारी रिपोर्ट में 2020 की जुलाई-सितंबर तिमाही के दौरान, भारत के कार्यबल में महिलओं की भागीदारी में 16.1% की भारी गिरावट देखी गई है। तुलनात्मक रूप से, बांग्लादेश में महिला भागीदारी दर 30.5% है।

विश्व बैंक के अनुसार महिलाओं के रोजगार के मामले में भारत की स्थिति पहले से ही बहुत खराब है। 15 या उससे अधिक उम्र की एक-तिहाई से भी कम भारतीय महिलाएं काम कर रही हैं या काम की तलाश कर रही हैं। सिकुड़ते अवसर, गृहकार्य का अधिक बोझ और प्रतिगामी मानसिकता में वृद्धि महिलाओं को घर तक सीमित कर रही हैं।

ओलंपिक में नारी शक्ति का उत्सव मनाने की ललक रखने वाले वही राजनेता हैं, जिन्होंने विधानमंडलों में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व का लगातार विरोध किया है। एक नेता तो यह भी मानते हैं कि नारी को स्वतंत्रता की नहीं, बल्कि सुरक्षा की आवश्यकता है। इसका अर्थ यह है कि महिलाएं स्वतंत्र होने में सक्षम नहीं हैं। बेशक कुछ पुरूष नेता महिलाओं के महत्व को मानते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यह वर्ग एक भारी वोट बैंक है। ऐसे नेता महिला-केंद्रित कल्याणकारी योजनाओं के साथ आगे आ रहे हैं ; एक ऐसी अवधारणा के साथ, जिसकी शुरुआत जयललिता ने की थी, और ममता बनर्जी ने उसे आगे बढ़ाया।

पदक और ट्राफियां पर्याप्त नहीं कही जा सकतीं। मानसिकता को मौलिक रूप से बदलने की जरूरत है। जब तब इंटरनेट पर महिलाओं से जुड़ी घृणा मिल जाती है। हाल ही में एक वेबसाइट ने दर्जनों मुस्लिम महिलाओं को ‘डील ऑफ द डे’ में बिक्री के लिए रखा था।

महिला खिलाड़ी वास्तव में रोल मॉडल बन रही हैं, परंतु जैसे-जैसे वे नजर में आ रही है, और पारंपरिक रूढ़ियों को चुनौती दे रही हैं, वैसे-वैसे वे पितृसत्तात्मक ताकतों के रोष का लक्ष्य बनती जा रही हैं।

ओलंपिक में महिला खिलाड़ियों को मिली उपलब्धि का जश्न मनाने का सबसे उत्तम मार्ग यह महसूस करना होगा कि समाज के दृष्टिकोण को तत्काल बदलने की जरूरत है। अन्यथा, भारत का गौरव कलंकित रहेगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सागारिका घोष के लेख पर आधारित। 8 अगस्त, 2021