भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कमजोर भूमिका
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जुलाई के मध्य में वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम ने 2022 के लिए अपना वार्षिक ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स जारी किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं की भागीदारी और अवसरों की बात करें, तो भारत 146 देशों में से 143वें स्थान पर है। देश की महिलाओं के आर्थिक तकनीकी व्यवसायों और नेतृत्वशाली भूमिकाओं के चलते पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष के स्कोर में मामूली वृद्धि हुई है। कुल मिलाकर वैश्विक पटल पर हमारी अर्थव्यवस्था लैंगिक असमानता ही दिखाती है। केवल ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही रैंक में हमसे नीचे है।
भारत सरकार का अपना रोजगार डेटा, शिक्षित और शहरी जनसंख्या में लगातार असमानता को दिखाता है। भारत के शहरों में, 71.7% पुरूष-स्नातक कार्यरत हैं जबकि 23.6% महिला-स्नातक ही वैतनिक रोजगार प्राप्त कर सकी हैं। इन संख्याओं और उनकी बारीकियों पर तकनीकी समाधानों के लिए अनेक प्रकार की चर्चाएं की गई हैं। उत्कृष्ट योजनाओं और सुझावों की भरमार है। लेकिन सामाजिक परिवर्तन कोई तकनीकी मसला नहीं है।
सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने का परिणाम –
हमारी अर्थव्यवस्था ऐसे कई पुरूषों द्वारा अन्य पुरूषों के लिए बनाई गई व्यवस्था है जो महिलाओं द्वारा ही जाने वाली देखभाल से समर्थित है। हमारे समाज के शुद्धतावादी हिस्से आत्मविश्वासी और आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाओं से डरते हैं।
नारीवादी दार्शनिक अमिया श्रीनिवासन ने हाल ही में लिखा है किए, ‘पुरुषों की स्वतंत्रता की अनकही शर्त, महिलाओं की गुलामी है।’ भारत में पुरूषों को बहुत से कार्यों को करने की छूट है जबकि महिलाओं को ऐसी छूट नहीं है। पुरूष-पुरूषों का साथ देना चाहते हैं। केवल 17% कामकाजी महिलाएं स्थिर वेतनभोगी नौकरी करती हैं। महिलाओं के अधिकांश कामों के लिए कम भुगतान किया जाता हैं छात्राओं को उनके पहनावे के लिए अपमानित किया जाता है। कार्यस्थलों में महिलाओं को हवस का शिकार बनाया जाता है। शादी के बाद महिलाओं से नौकरी छोड़ने की उम्मीद की जाती है। हर पेशेवर रूप से सफल महिला को कार्यालय में पुरूष के आक्रोश का सामना करना पड़ा है।
हमारे यहाँ विपरीत लिंगों के बीच एक मौन और निहित अनुबंध है। पुरूषों से पैसा कमाने और महिलाओं से घर की देखभाल करके प्यार कमाने की उम्मीद की जाती है। जो महिलाएं इस अनुबंध को स्वीकार करती हैं उन्हें पितृसत्तात्मक व्यवस्था में सुरक्षा और लाभ मिलता है। लेकिन जो विरोध करती हैं’ उन्हें एक पुरूष प्रधान अर्थव्यवस्था में रहने का कठोर खामियाजा भुगतना पड़ता है।
तथ्य यह है; कि न अधिकांश भारतीय इसे एक गंभीर समस्या के रूप में नहीं देखते हैं। उम्मीद है कि कभी हमारे निजी दैनिक जीवन की राजनीति में महिलाओं की समानता के लिए कोई कदम उठाया जाएगा। इसकी शुरूआत उन महिलाओं के समूहों से हो चुकी है; जो उचित मजदूरी के लिए लड़ रही हैं, उन पुरूषों से जो बर्तन धो दिया करते हैं; देखभाल कार्यकर्ताओं को न्यूनतम मजदूरी देने वाले परिवारों से; उन माताओं से जो अपनी बेटियों को नौकरी के लिए प्रोत्साहित करती हैं; कार्यस्थलों पर महिलाओं के विचारों का समर्थन करने वाले सहयोगियों से आदि-आदि। हमारी असमान अर्थव्यवस्था से बाहर निकलने का रास्ता हमारे रोजमर्रा के निजी विद्रोहों में निहित है। इन्हें चलते रहना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित श्रयाना भट्टाचार्य के लेख पर आधारित। 31 जुलाई, 2022