अपरिवर्तनीय आपराधिक न्याय

Afeias
22 Apr 2022
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भारत में आपराधिक न्याय तंत्र को चुस्त दुरूस्त बनाने के लिए समय-समय पर प्रयास होते रहे हैं। लेकिन विडंबना है कि ये ऐसी समस्याओं से घिरी हुई है, जो न केवल संस्थानों के संवैधानिक ताने-बाने में, बल्कि उनके पदाधिकारियों के मानस में भी निहित है। इन समस्याओं पर एक नजर –

  1. पहली समस्या लंबित मामलों के निस्तारण की है। न्यायपालिका के पास 4.4 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
  1. हाशिए पर रह रहे नागरिकों के लिए न्याय तंत्र तक पहुंचना कठिन है। इस पर नोबेल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है कि हमारी न्याय प्रणाली एक ऐसे संस्थागत दृष्टिकोण का अनुसरण करती है, जहां इस तरह की व्यवस्था से पनपने वाली दुनिया की परवाह किए बिना संस्थागत व्यवस्था को ठीक करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। हमारी दुनिया ऐसी है, जहां क्षमता निर्माण के बजाय संस्थान निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। ऐसे में समाज के कमजोर वर्ग का हाशिए पर होना और न्याय तक पहुंच न बन पाना बहुत स्पष्ट है।
  1. पुलिस द्वारा सत्ता के दुरूपयोग की समस्या है। जिस औपनिवेशिक मानसिकता से यह संस्था बनाई गई थी, वह आज भी चल रही है। पुलिस व्यवस्था को पूरी तरह से बदले बिना इसे रोका नहीं जा सकता है।
  1. अपराध की रोकथाम, हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का एक काल्पनिक लक्ष्य है। कानून या पुलिस के माध्यम से अपराध की रोकथाम में शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त करना, मात्र एक आदर्श स्थिति की कल्पना जैसा है। अनुभवजन्य शोध अध्ययनों से पता चलता है कि दंड की अधिकता का अपराध दर कम करने में बहुत कम प्रभाव है। सामुदायिक पुलिस और स्थितिजन्य अपराध रोकथाम जैसी पहल का अभी तक ठोस परिणाम नहीं मिल सका है।
  1. अपराधियों के साथ व्यवहार में विविध प्रकार के सिद्धांतों को अमल में लाना अभी बाकी है। कई विधि आयोगों और समितियों (मन्मथ समिति, माधव मेनन समिति आदि) ने अपधारियों को हिरासत के अलावा दंड के अन्य प्रावधानों पर विचार करने की सिफारिश की है। इनको व्यवहार में लाना बाकी है। दुर्भाग्य यह है कि हमारी जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों के होने के बाद भी कोई अन्य प्रावधान व्यवहार में नहीं लाया जा सका है।
  1. सरकार की ओर से डेटा-संग्रह, रखरखाव और विश्लेषण के लिए विश्वसनीय तंत्र की कमी है।

इन समस्याओं को धारणा के रूप में स्वीकार करने से सुधारों की योजना बनाने के तरीके पर अनुकूल प्रभाव पड़ सकता है। उदाहरण के लिए अगर हम मानते हैं कि पुलिस सत्ता का दुरूपयोग करती है, तो पुलिस अधिकारियों पर केवल नैतिक दायित्व थोपने से समस्या का समाधान नहीं होगा। इसमें सुधार के लिए हमें स्वतंत्र जांच प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाना चाहिए और दोषी या गलत पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कठोर दंडात्मक प्रतिबंध लगाने चाहिए।

इसी प्रकार अगर हम मानते हैं कि लंबित मामलों की समस्या बहुत ज्यादा है, तो शायद हमें अपराधीकरण करने की सामाजिक प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की जरूरत है। शोधकर्ताओं और सुधारवादियों द्वारा की गई कोई भी और सभी सिफारिशें, इन समस्याओं की वास्तविकता को स्वीकार करने के बाद ही की जानी चाहिए। तभी हम अपनी आपराधिक न्याय प्रणाली में समग्र सुधार के लिए आगे बढ़ सकते हैं।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित जी.एस. बाजपेई और अंकित कौशिक के लेख पर आधारित। 30 मार्च, 2022