स्वतंत्रता की एक सीमा है

Afeias
26 Feb 2018
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Date:26-02-18

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हमारे देश में नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों में कोई भी असीम नहीं है। जैसे अनुच्छेद 19(1)(ए) के अंतर्गत दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को 19(2) में सीमाओं में बांधा गया है। संविधान के मसौदे में इस अधिकार पर अंकुश लगाने का एक आधार ‘राजद्रोह’ को माना गया है। राजद्रोह को भारतीय दंड संहिता के भाग 124-ए के तहत ऐसा आपराधिक कृत्य माना गया है, जिसके लिए उम्रकैद एवं जुर्माने के दंड का प्रावधान है।

  • प्रिवी काऊंसिल ने सरकार के प्रति असंतोष या बुरी भावनाओं को उत्तेजक शब्दों में व्यक्त करने को राजद्रोह माना था। मुख्य न्यायाधीश मॉरिस ग्वायर की अध्यक्षता में फेडरल कोर्ट ने कहा कि, ‘सरकार की असफलता पर प्रहार करने वाली अभिव्यक्ति को राजद्रोह नहीं माना जा सकता।’
  • इसी संदर्भ में 1962 में केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने फेडरल कोर्ट के आदेश को अपनाते हुए कहा कि ‘सरकार की कटु से कटु आलोचना को भी तब तक राजद्रोह नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसमें हिंसात्मक तत्वों का समावेश न किया गया हो।’
  • 1995 में भी ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाने वाले के विरूद्ध 124-ए के अंतर्गत राजद्राह का मुकदमा चलाए जाने से उच्चतम न्यायालय ने इंकार कर दिया था। अगर कोई व्यक्ति हिन्दुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाता है या भारत देश को अत्याचारी कहकर उसके पराभव की बात कहता है, तो संभवतः इसे राजद्रोह माना जा सके।
  • सरकारी विरोध को बर्दाश्त न करने वाली कई अभियोजन एजेंसी ने अनुच्छेद 124-ए का दुरुपयोग किया है। इसका एक हास्यास्पद उदाहरण वित्त मंत्री अरुण जेटली पर भी इस प्रकार का अभियोग चलाया जाना है। ऐसे मामलों में अभियोग चलाने का खंडन किया जाना चाहिए।

कुछ मामलों में अनुच्छेद 124-ए के दुरुपयोग होने से इस अनुच्छेद की सार्थकता को नकारकर इसका पूर्ण खंडन नहीं किया जा सकता। उचित प्रकार से व्याख्यायित एवं आरोपित किए जाने पर यह प्रावधान निश्चित रूप से देश की गरिमा, एकता और अखंडता की रक्षा करने का उत्तम अस्त्र है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सोली जे सोराबजी के लेख पर आधारित।