संस्थागत प्रणाली में दरारें

Afeias
07 Mar 2019
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Date:07-03-19

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ऐसा माना जा रहा है कि देश की सरकार रोजगार और बेरोजगारों की स्थिति से संबंधित आंकड़ों को दबाने का प्रयास कर रही है। इसके लिए राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की स्वायत्तता को दांव पर लगाया जा रहा है। भारत में संस्थाओं की शक्ति के क्षय की कहानी कहने वाली यह एकमात्र घटना नहीं है। पहले भी ऐसा होता रहा है। 1975 से 1977 तक देश में लगाए गए आपातकाल में संस्थाओं की आजादी का गला घोंटने की शुरुआत हुई थी। उस दौरान सरकार ने नौकरशाहों और न्यायालयों को अपनी मुट्ठी में बंद रखने का भरसक प्रयास किया था। अब वर्तमान भाजपा सरकार भी उसी मार्ग पर तेजी से कदम बढ़ा रही है।

संस्थाओं की अनिवार्यता

संस्थागत प्रणाली का पतन चिंताजनक होता है, क्योंकि यह जनसाधारण पर घातक प्रभाव डालता है। सत्ता की अदम्य इच्छा रखने वाली सभी सरकारें, चाहे वे प्रजातांत्रिक रूप से चुनी गई हों, विश्वासघात करती ही हैं। और इस प्रकार सरकारी शक्ति का विस्तार स्वतंत्रता, समानता और न्याय के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। और तब किसी भी मनमानी और गैरकानूनी कार्यवाही से नागरिकों की रक्षा करने के लिए सरकार की शक्तियों पर लगाम कसना ही एकमात्र उपाय रह जाता है। लिबरल डेमोक्रेट्स; जो हमेशा ही सरकार की शक्ति पर संदेह करते हैं, ने संविधान और संस्थागत ढांचे से बाहर निकलकर सत्ता में नाटकीय परिवर्तन लाने वाली सरकारों को रोकने की कोशिश की है। संस्था औपचारिक और अनौपचारिक नियमों का ऐसा ढांचा है, जो जनता को आश्वस्त रखता है कि सरकार का चाल-चलन नियमों के अनुसार ही है या नहीं।

अधिकांश मानवीय गतिविधि नियमों की प्रणाली द्वारा संरचित है। राजनीतिक समझ के लिए इसे स्वीकार करना आवश्यक है। सभी संबंध घर-परिवार, समाज, अर्थव्यवस्था, मनोरंजन आदि के अंतर्गत ही फलते-फूलते हैं। मानव जाति मूलतः सामाजिक है। लेकिन हम तब तक सामाजिक नहीं हो सकते, जब तक कि ये न समझ लें कि हमें क्या करना है और क्या नहीं। संबंधों के बीच भी नियम होते हैं, जिससे उचित व अनुचित का भेद पता चलता है।

कैनेडियन राजनैतिक दार्शनिक चार्ल्स टेलर ने अपनी पुस्तक, “सोर्सेस ऑफ द सेल्फ“ में लिखा है कि ‘‘संस्था सशक्त मूल्यांकन का केन्द्र होती है।’’ सही-गलत और अच्छे-बुरे का निर्णय, हमारे अपने मन-मस्तिष्क पर निर्भर नहीं करता। संस्थाएं ही हमें इसका आकलन करने का पैमाना प्रदान करती हैं। सत्तासीन दल के दावे हमारे जीवन को विपरीत तरह से प्रभावित कर सकते हैं। अतः हमें इस बात के लिए सतर्क व चौकन्ना रहना चाहिए कि सत्ता का उपयोग सही हो रहा है या नहीं। प्रजातंत्र के नियम हमें आश्वस्त करते हैं कि न्याय, निष्पक्षता का पर्याय है।

इसके अलावा, नियमों के ही कारण हमारा संसार स्पष्ट होता है। हमें अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा का बोध है। संस्थाओं और नियमों के बिना तो हमारा जीवन अनिश्चित और अस्थिर हो जाएगा। हम अपेक्षाओं, अनिश्चितताओं और मूल्यांकन के चक्रव्यूह में फंसते चले जाएंगे।

नियम कोई चाबुक नहीं होते

प्रजातंत्र में, किसी व्यक्ति-विशेष का शासन न होकर संस्थाओं का शासन होता है। अगर हम संस्थाओं द्वारा संचालित जगत में न रहें, तो किसी मनमौजी निरंकुश शासक की दया पर जीना पड़ेगा। प्रजातंत्र के ऐसे नियम ही उसकी खूबी हैं, जिनका मूल्यांकन और छानबीन की जा सके। लेकिन कभी नियम भी गलत हो सकते हैं। हमें उनको सही करने के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उसके लिए हम चरमपंथी हो जाएं। इस संघर्ष के लिए मोर्चे बनाना, जुलूस निकालना, न्यायालयों के द्वार खटखटाना, सविनय अवज्ञा करना और अपने मतदान से मत प्रकट करने जैसे कई साधन हो सकते हैं। संस्थाओं के अभाव में किसी सरकार के प्रति विरोध का एक ही रास्ता बच जाता है, और वह है- हिंसा।

वर्तमान सरकार ने विभिन्न संस्थाओं में अपने लोगों को बैठाकर खिलवाड़ किया है। वह इन सीबीआई जैसे प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, सीबीआई आदि का इस्तेमाल सरकार का विरोध करने वालों को दबाने के लिए कर रही है। मानव अधिकार संस्थाओं को निधि की कमी करके, छापों और गिरफ्तारियों के द्वारा चक्की में पीसा जा रहा है। मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को जिस शर्मनाक तरीके से गिरफ्तार करके जेल में ठूंसा जा रहा है, वह नियमों के विनाश का ही चिन्ह है। सरकार का एकमात्र लक्ष्य संस्थाओं के बीच के नियंत्रण और संतुलन को खत्म करके उनका विघटन करना है। यह प्रजातंत्र को रुग्ण बना रहा है।

सरकार के इस प्रकार के कदम स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा पर चोट कर रहे हैं। सन् 1928 के मोतीलाल नेहरू संविधान मसौदे में स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने संवैधानिकता पर इसलिए जोर दिया था, ताकि शक्ति का गलत इस्तेमाल न हो, और जनता को मूलभूत अधिकार मिल सकें। 1948 की संविधान सभा में संविधान के मसौदे पर बहस के दौरान डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि, संविधान भविष्य की सरकारों के लिए एक ढांचा है। परन्तु अगर इस नए संविधान के कारण कहीं कुछ गलत होता लगता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि संविधान बुरा है, बल्कि दोष सरकार का होगा। भारतीय संविधान ने संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका जैसी संस्थाओं का गठन करने के बारे में बताया, और उनके अंतर्सबंधों की भी व्याख्या की। संवैधानिक ढांचे में हमारी सोच और विश्वास जैसी मौलिक अवधारणाओं पर चर्चा नहीं की गई है। इसमें तो संवैधानिक नैतिकता के साथ-साथ हमारे राजनैतिक धरातल के रूप में संविधान का सम्मान करने की चर्चा की गई है।

सत्तासीन दल आज राष्ट्र का सम्मान, गाय का सम्मान, सरकार की प्रशंसा व घुटनों के बल पर नेताओं की बात सुनने जैसी मोटी अवधारणा पर काम कर रहा है। सरकार की यह प्रवृत्ति 1960 के आसपास मनोज कुमार द्वारा लिखित और अभिनीत फिल्मों की कच्ची राष्ट्रवादिता की याद दिलाती है। मनोज कुमार की फिल्में देखने या न देखने का हमारे पास विकल्प था, परन्तु यहाँ अपमान और हिंसा सहे बिना आप सरकार की बात से मुँह नहीं मोड़ सकते।

इधर सरकार उन सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर रही है, जो उसकी नीतियों का विरोध कर रहे हैं। और उधर गौरक्षक उन लोगों पर प्रहार कर रहे हैं, जो वैध रूप से पशुओं का व्यापार कर रहे हैं। हमारी पुलिस और मजिस्ट्रेट की सहानुभूति भी आक्रमणकारियों के साथ है। हमारे नेताओं का कानून के शासन के प्रति कोई सम्मान दिखाई नहीं देता है।

नियमन से बंधी संस्थागत शक्ति ही नागरिकों की सुरक्षा का हथियार है। दुर्भाग्यवश, आज के भारत में संस्थाओं का इस्तेमाल सत्ता के बचाव के लिए किया जा रहा है। इनकी आड़ में सत्ताधारियों के पाप छुपाए जा रहे हैं। हमारे शासकों को यह पता होना चाहिए कि जब सरकार और जनता के संबंधों पर संस्थाओं का नहीं, बल्कि व्यक्ति-विशेष का राज चलने लगता है, तो राजनीति सड़कों पर उतर आती है। इन्हीं स्थितियों में क्रांति होती है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित नीरा चंडोक के लेख पर आधारित। 6 जनवरी 2019