संयमित उपभोग पर आधारित विकास

Afeias
13 Nov 2019
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Date:13-11-19

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महात्मा गांधी के व्यक्तित्व ने न केवल भारत बल्कि विश्व की अनेक हस्तियों को प्रभावित किया है। दिलचस्प बात यह है कि इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई ग्रंथों को प्रभावित किया है। परन्तु संसार के भविष्य का मसौदा तैयार करने वाला अंतरराष्ट्रीय समुदाय, उनके सिद्धांतों को शामिल नहीं कर पा रहा है।

इन दिनों, धारणीय विकास के लक्ष्यों की चारों ओर चर्चा है। 1908 में गांधीजी ने हमें धारणीय विकास का मार्ग दिखाया था। अपने ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने भौतिक वस्तुओं और सेवाओं के लिए हमारी खोज को देखते हुए मानव के भविष्य के लिए खतरे को रेखांकित किया था।

2015 में, संयुक्त राष्ट्र के 17 धारणीय विकास लक्ष्यों में से 12वां ‘स्थायी खपत और उत्पादन पैटर्न’ को सुनिश्चित करने से संबंधित था। गांधीजी की महानता के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि थी। हांलाकि इस घोषणा की प्रस्तावना में गांधीजी या भारतीय मूल्यों का कोई उल्लेख नहीं किया गया था। अगर हम धारणीय विकास लक्ष्यों के उपभाग को ध्यान से पढ़ें, तो पाते हैं कि वे “हिन्द स्वराज” के दर्शन को ही प्रतिबिंबित कर रहे हैं।

गांधीजी के सिद्धांतों को धारणीय विकास लक्ष्यों में स्थान दिए जाने का स्पष्ट अर्थ यह है कि ये कल्पना मात्र की उड़ान नहीं थी, बल्कि लक्ष्यों को हासिल करना था। इसका प्रमाण दीनदयाल शोध संस्थान और ऐसे ही अन्य संस्थानों द्वारा विकसित किए गए विकास मॉडल में मिलता है। दीनदयाल उपाध्याय की स्मृति को बनाए रखने के लिए इस शोध संस्थान की स्थापना की गई है। उपाध्याय जी ने गांधीजी की विरासत को आगे बढ़ाया था। उनकी मृत्यु के बाद, उनके समकालीन नानाजी देशमुख ने इस दर्शन को कार्यरूप में बदलने का कार्य किया। देश के पिछड़े इलाकों में शिक्षा, जीवन-विज्ञान, आजीविका, प्रौद्योगिकी और सामाजिक चेतना सहित मानव जीवन के सभी पहलुओं और आयामों का मॉडल हमें चित्रकूट, गौण्डा, बीड और नागपुर में देखने को मिलता है।

गांधीजी को यह स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं हुई कि उनके विचार पुराने हो सकते हैं। अतः इस संबंध में अपना रुख बदलने में भी उन्हें कोई समस्या नहीं थी। उनके मूल सिद्धांत वही रहे। उदाहरण के लिए दोनों ही महान व्यक्तित्व यह मानते थे कि स्वदेशी ज्ञान और संस्कृति का सम्मान किया जाना चाहिए। इस प्रकार का दृष्टिकोण अधिक खपत के उस विचार से बिल्कुल भिन्न है, जिसे लालच का कारण और परिणाम दोनों ही माना जा सकता है।

गांधीजी की तरह ही नानाजी देशमुख ने भी ग्रामीणों को ही देश के संसाधनों का ट्रस्टी माना था। इसके साथ गांधीजी लोगों की परिवर्तित होती आकांक्षाओं के अनुरूप तकनीकी प्रगति के भी पक्षधर थे। उन्होंने अनावश्यक उपभोग को सदैव नकारा। अपने मॉडल का विकास करते हुए नानाजी भी इसी दृष्टिकोण को लेकर चले। दोनों ही मानते थे कि सामंजस्यपूर्ण विकास, सांस्कृतिक मानदंडों के बल पर ही हो सकता है। देशी ज्ञान और बुद्धिमत्ता में उनका अटूट विश्वास था। वे दृढ़ता से कहते रहे कि स्थानीय संसाधनों और प्रतिभाओं के साथ ही इसे हासिल किया जा सकता है।

गांधीजी ने अपने जीवन के माध्यम से धारणीय उपभोग के गुण सिखाए। कई अवसरों पर उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को, उनकी विलासिता के लिए संसाधनों की बर्बादी पर डांटा भी था। उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल एक धर्म की तरह करने की बात कही थी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में ‘दोहन’ का निकटतम अंग्रेजी अनुवाद ‘हार्नेसिंग’ लगता है। यह शब्द बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग सम्मानपूर्वक और सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए, ताकि हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़ सकें। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल को सुनिश्चित करेगा।

भारत के हर क्षेत्र की सामाजिक और भौगोलिक विशेषताएं भिन्न हैं। यहाँ 127 प्रकार के कृषि-जलवायु क्षेत्र हैं। जब नीति-निर्माता केवल आंकड़ों के आधार पर नीतियां बनाने का प्रयत्न करते हैं, तो वे इसलिए असफल हो जाते हैं।

2008 में फ्रेंच राष्ट्रपति ने सकल घरेलू उत्पाद में आर्थिक प्रदर्शन और सामाजिक विकास के संकेतकों की सीमाओं को जांचने के लिए एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने पाया कि किसी क्षेत्र के विकास को अनेक विभिन्नताएं नियंत्रित करती हैं।

इस आयोग के गठन के सौ साल पहले ही गांधीजी ने यह बात कह दी थी। उन्होंने अर्थशास्त्र और विकास की विकेन्द्रीकृत प्रणाली की आवश्यकता को रेखांकित किया था, जिससे कि स्थानीय भिन्नताओं के आधार पर योजनाओं का निर्माण किया जा सके।

स्थायी उपभोग के सही अर्थ को समझे बिना सतत विकास की बात करना महज बयानबाजी होगी। प्राकृतिक संसाधनों के संयमित उपभोग के बिना हम उसके शोषण से नहीं बच सकते और तभी उत्पादन के पैटर्न में धारणीयता आ सकती है। उपाध्याय जी ने भी संयमित उपभोग के भारतीय सिद्धांत को मान्यता दी है।

विभिन्न शास्त्रों और सांस्कृतिक पंरपराओं को देखते हुए उन्होंने भारतीयों की मितव्ययिता को उनके धर्म के उल्लास के साथ जोड़ा है। उनका मानना है कि इससे संसाधनों का दोहन कम होगा। वे धन के वाहियात प्रदर्शन और दिखावटी जीवन पद्धति के विरुद्ध थे। धारणीय विकास लक्ष्यों के उपभाग 12 में भी यही सिद्धांत निहित है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अतुल जैन के लेख पर आधारित। 24 अक्टूबर, 2019

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